________________ न पड़े। इस का अर्थ वही है, जो कि ऊपर किया गया है। टीकाकार भी यही अर्थ करते हैं- गृह एव निषीदनं समाचरति यः साधुरिति अर्थात्- जो साधु गृहस्थ के घर में ही बैठने की क्रिया का समाचरण करता है। उत्थानिका- अब आचार्य, अनाचार-विषयक वर्णन करते हैं:विवत्ती बंभचेरस्स, पाणाणंच वहे वहो। वणीमगपडिग्घाओ, पडिकोहो अगारिणं॥५८॥ विपत्तिर्ब्रह्मचर्यस्स , प्राणानां च वधे वधः। वनीपकप्रतिघातः , प्रतिक्रोधः अगारिणाम्॥५८॥ पदार्थान्वयः- गृहस्थों के घरों में बैठने से बंभचेरस्स-ब्रह्मचर्य का विवत्ती-नाश पाणाणं-प्राणियों का वहे-वध होने पर च-और साथ ही वहो-संयम का घात तथा वणीमगपडिग्घाओ-भिक्षाचरों का प्रतिघात और अगारिणं-गृहस्थों को पड़िकोहो-प्रतिक्रोध होता है। मूलार्थ-गृहस्थों के घरों में बैठने से ब्रह्मचर्य का नाश, प्राणियों का वध, संयम का घात, भिक्षाचर लोगों को अन्तराय तथा गृहस्वामी (गृहस्थ)लोगों को क्रोधं होता टीका-गृहस्थों के घर में बैठने से एक तो ब्रह्मचर्य का नाश होता है। क्योंकि, जिस किसी दशा में इधर-उधर डोलती, फिरती, बैठती, सोती हुई स्त्रियों को देखने से निश्चल से निश्चल चित्त भी काम राग के धक्के से चलायमान हो जाता है, चित्त के चञ्चल होते ही ब्रह्मयर्च अपने आप स्खलित हो जाता है। ब्रह्मचर्य की स्थिरता, चित्त की स्थिरता पर अवलम्बित है। दूसरे षट्कायिक जीवों का नाश होता है। क्योंकि विशेष संसर्ग के कारण राग भाव हो जाने से प्रतिष्ठित साधु के वास्ते नाना प्रकार के स्वादिष्ट पदार्थ तैयार किए जाएंगे, जिससे छः काय के जीवों का विनाश स्वयं सिद्ध है और जहाँ आधा कर्मादि-आहार से जीवों का विनाश होता है, भला फिर वहाँ संयम कैसे स्थिर हो सकता है? संयम की स्थिरता तो जीव दया पर निर्भर है। तीसरे याचकों को अन्तराय होता है। क्योंकि, देने वाले तो साधु के पास बैठ जाते हैं। उसकी सेवा-शुश्रूषा में लग जाते हैं, फिर बेचारे याचकों की पुकार कौन सुने ? तरन-तारन जहाजरूपी साधु की भक्ति में लग कर पीछे, क्षुद्र नौका रूप याचकों की तरफ ध्यान जाना भी असम्भवसा है। चौथे गृहस्थों को क्रोध भी होता है। क्योंकि, गृहस्थों का हृदय प्रायः शङ्का शील होता है, वे अपने मन में अवश्य शङ्का करेंगे कि, "देखो यह कैसा साधु है ?" बिना कुछ देखे भाले झट यहाँ आकर पसर जाता है। साधु का काम है आहार लिया और चल दिया। उसके यहाँ पर बैठने से क्या प्रयोजन है ? अवश्य ही यह साधु कुछ चाल-चलन में स्खलित प्रतीत होता है। फिर अवश्य ही, गृहस्थ जब कभी आगे-पीछे, स्पष्ट-अस्पष्ट रूप से नाना प्रकार के आक्षेप करने लेगेंगे। सूत्र का संक्षिप्त सार यह है कि, घरों में बैठने से केवल हानि ही है, लाभ कुछ भी नहीं। जो साधु अपने यश को सदा निष्कलङ्क बनाए रखना चाहते हैं, उन्हें भूलकर भी यह 256] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्