SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पदार्थान्वयः- एए-ये सब आसन गंभीरविजया-अप्रकाशमय हैं, अतः पाणासूक्ष्म प्राणी दुप्पडिलेहगा-दुष्प्रतिलेख्य हैं / एअमटुं-इसलिए आसंदी पलिअंको-आसंदी पर्यंक य-और-मंचादि आसन साधुओं को विवज्जिआ-विवर्जित हैं। मूलार्थ-ये आसंदी आदिआसन अप्रकाशमय हैं, अतः दुष्प्रतिलेख्य हैं। इसीलिए साधुओं के वास्ते ये आसन सभी प्रकार से वर्जित हैं। टीका- पूर्व सूत्रोक्त पर्यंक आदि गंभीर-विजय (अप्रकाशमय) हैं। इनमें जैसा चाहिए वैसा बराबर प्रकाश नहीं पड़ता। अतः तद्गत जीव भली भाँति प्रति-लेखन नहीं किए जा सकते अर्थात् उनका निरीक्षण सम्यगप्रकार से नहीं हो सकता है। जब जीवों का निरीक्षण ही नहीं हुआ तो उनकी रक्षा कैसे हो सकती है ? रक्षा तो तभी हो सकती है जब कि वे रक्षक के दृष्टि गोचर हों। अतः सारांश यह है कि, इस जीव-घात रूप दोष से अपनी पवित्र आत्मा को निष्कलंक बनाए रखने के लिए जीव-दया-प्रेमी साधुओं को कदापि पूर्वोक्त पर्यंक आदि अयोग्य आसनों पर बैठने , सोने आदि की कोई भी क्रिया नहीं करनी चाहिए। उत्थानिका- अब आचार्य जी सोलहवें स्थान का विवेचन करते हैं:गोअरग्गपविट्ठस्स , निसिज्जा जस्स कप्पइ। इमेरिसमणायारं , आवजइ अबोहिअं॥५७॥ गोचराग्रप्रविष्टस्य , निषद्या यस्य कल्पते। ईदृशमनाचारं . , आपद्यते अबोधिकम्॥५७॥ पदार्थान्वयः-गोअरग्गपविट्टस्स-गोचराग्र-प्रविष्ट जस्स-जिस साधु को गृहस्थ के घर पर निसिज्जा-बैठना कप्पइ-कल्पता है (उत्तम प्रतीत होता है) वह साधु इमेरिसं-वक्ष्यमाण अणायारं-अनाचार को और उस अनाचर के अबोहिअं-अबोध-रूप फल को आवजइ-प्राप्त करता है। .. मूलार्थ-गोचरी के लिए गया हुआ जो साधु , गृहस्थों के घरों में जा कर बैठता है, वह वक्ष्यमाण-अनाचार एवं मिथ्यात्व-रूप दुष्फल को प्राप्त करता है। टीका- इस गाथा में सोलहवें स्थान के विषय में कथन किया है। यथा जो साधु गोचरी के लिए गृहस्थों के घरों में गया हुआ वहीं बैठ जाता है, उसको वह सम्यक्त्व का नाश अर्थात्-मिथ्यात्व रूप फल की प्राप्ति होती है, जिसका मैं यथा क्रम से वर्णन करूँगा। कारण यह है कि, घरों में जा कर बैठने से संयम-वृत्ति में नाना प्रकार की शङ्काएँ उत्पन्न होने की संभावना हो सकती है। क्योंकि जब संयमी घरों में नाना प्रकार की काम जन्य क्रियाएँ देखेगा, तब उसकी आत्मा संयम वृत्ति में कैसे स्थिर हो सकेगी ? अवश्य ही वह संयम-गिरि के उच्च शिखर से गिरकर मिथ्यात्व के सर्व नाशकारी अथाह क्षार समुद्र में डूब जाएगा। इसीलिए सूत्रकर्ता ने 'अबोधिकं' और 'आपद्यते' ये दो पद दिए हैं, किन्तु क्षयिक-भाव या क्षयोपशमिकभाव तो बड़े भारी सत्य प्रयत्न से प्राप्त होते हैं, किन्तु औदयिक-भाव अत्यन्त शीघ्र ही किसी तुच्छ निमित्त के मिलने पर ही उदय हो आता है। सूत्र में जो 'कल्पते' क्रिया-पद दिया हुआ है पाठक उससे 'गृहस्थों के घरों में साधु को बैठना कल्पता है (योग्य है)' इस अर्थ के भ्रम में षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [255
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy