________________ व्याख्याकार ने लिखा है कि, "आशालकस्तु अवष्टम्भसमन्वित आसनविशेषः "अर्थात्-जिसमें . सहारा हो, ऐसा सुखकारी आसन। अतः यह टीकाकार का आसान विशेष' आधुनिक समय में आराम कुर्सी आदि ही समझ में आता है। सूत्र में जो आसनों का नामोद्देश किया है, उससे यह अभिप्राय नहीं होता है कि, 'सूत्रकथित आसन ही त्याज्य हैं, अन्य नहीं।' सूत्र में गिने हुए आसनों के अलावा अन्य आसनों को भी उपलक्षण से ग्रहण कर लेना चाहिए। उत्थानिका- अब आचार्य, इस अधिकार के अपवाद का कथन करते हैं:नासंदीपलिअंकेषु , न निसिज्जा न पीढए। निग्गंथा पडिलेहाए, बुद्धवुत्तमहिट्ठगा // 55 // नासंदीपर्यंकयोः , न निषद्यायां न पीठके। निर्ग्रन्थाः अप्रतिलेख्य, बुद्धोक्तमधिष्ठातारः // 55 // पदार्थान्वयः- बुद्धवुत्तमहिढगा-सर्वज्ञ देवों के वचनों को मानने वाले निग्गंथासाधु पडिलेहाए-बिना प्रतिलेखन किए न-न तो आसंदीपलिअंकेसु-आसंदी और पलंग पर बैठते हैं न-न निसिजा-गद्दी पर और न-न पीढए-पीठक पर बैठते हैं। मूलार्थ- जो मुनि, तीर्थंकर-देवों की आज्ञा को पूर्णतया मानने वाले हैं। वे आसंदी, पर्यंक, गद्दी और पीठ आदि पर बिना प्रतिलेखन किए बैठने, उठने और सोने . आदि की क्रियाएँ कदापि नहीं करते हैं। . टीका- इस गाथा में उक्त विषय का स्पष्टीकरणं किया गया है और साथ ही उसका अपवाद भी दिखलाया गया है। जैसे कि, श्री तीर्थंकर देवों की आज्ञा के पालन करने वाले साधु को गृहस्थों के आसंदी, पर्यंक तथा पीठक आदि आसनों पर प्रथम तो बैठना ही नहीं चाहिए, क्योंकि उनमें शुषिरता (छिद्र) के कारण अनेक प्रकार के जीवों के रहने की संभावना है। यदि कभी किसी रोगादि आवश्यक कारण से (असमर्थता से) इन आसनों पर बैठना भी पड़े तो अच्छी तरह निरीक्षण कर प्रतिलेखना कर के बैठना चाहिए, अन्यथा नहीं। यहाँ यह अवश्य ध्यान रहे कि, उत्सर्ग-मार्ग में तो चाहे किसी प्रकार के भी गृहस्थासन हों, चाहे कैसे ही कारण क्यों न हों, कभी भी नहीं बैठना चाहिए। हाँ, अपवाद-मार्ग में किसी विशेष कारण के उपस्थित होने पर प्रतिलेखना करके बैठ सकता है। उत्थानिका-अब आचार्य महाराज, 'उक्त आसनों पर बैठने से क्या दोष होता है ?' इसके विषय में कहते हैं: गंभीरविजया एए, पाणा दुप्पडिलेहगा। आसंदी पलिअंको य, एअमटुं विवजिआ॥५६॥ गम्भीरविजया एते, प्राणिनो दुष्प्रतिलेख्याः। आसंदी पर्यङ्कश्च, एतदर्थं विवर्जिताः॥५६॥. 254] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्