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________________ कल्पता है। क्योंकि सिया-कदाचित् पच्छाकम्म-पश्चात्-कर्म तथा पुरेकम्म- पूर्व-कर्म लगता है। एयमढें-इसलिए निग्गंथा-निर्ग्रन्थ गिहिभायणे-गृहस्थ के पात्र में न भुंजंति-भोजन नहीं करते। मूलार्थ-गृहस्थ के पात्रों में भोजन करने से साधु को पूर्व-कर्म का तथा पश्चात्-कर्म का बहुत विशाल दोष लगता है। अतएव जो मुनि निर्दोष संयम के धारक है, वे किसी भी दशा में गृहस्थ के पात्रों में भोजन नहीं करते। टीका-इस गाथा में उक्त विषय का उपसंहार किया गया है। जब साधु गृहस्थों के बर्तनों में भोजन करने लग जाएगा, तब उसको पश्चात्कर्म वा पूर्व-कर्म रूप दोष लगेंगे। क्योंकि जब साधु गृहस्थों के बर्तनों में भोजन कर चुकेगा तब वे गृहस्थ उन बर्तनों को शुद्ध (पवित्र) बनाने के लिए शीत जल द्वारा प्रक्षालनादि क्रियाएँ करेंगे, यह पश्चात्कर्म है तथा भोजन करने से पहले साधु के लिए ही उन बर्तनों को शीत जल द्वारा शुद्ध करने लगेंगे यह पूर्व-कर्म है। अतः उक्त दोनों प्रकार के दोषों को दूर करने के लिए ही (उपलक्षण से अन्य संभावित दोषों को भी दूर करने के लिए) साधु-जन गृहस्थ लोगों के बर्तनों में भोजन नहीं करते / यदि ऐसे कहा जाए कि, यदि उष्णादि अचित्त जल से पात्र शुद्ध कर लिए जाएँ तो फिर कोई दोष उत्पन्न नहीं हो सकता ? शङ्का के उत्तर में कहा जाता है कि, यदि उष्ण जल आदि इसी निमित्त से तैयार किए जाएँगे तब तो पूर्व-कर्म दोष पहले ही उपस्थित हो जाएगा और उपलक्षण से अन्य दोषों की .. संभावना भी अनिवार्य है। इसीलिए दया-पालक-मुनियों को गृहस्थों के पात्रों में कदापि भोजन नहीं करना चाहिए। उत्थानिका- अब आचार्य, पंदरहवें स्थान का वर्णन करते हैं:आसंदी-पलिअंकेसु, मंचमासालएसुवा। अणायरिअमज्जाणं, आसइत्तु सइत्तु वा // 54 // आसंदी-पर्यंकेषु , मंचाशालकेषु वा। अनाचरितमार्याणां , आसितुंशयितुं वा॥५४॥ * पदार्थान्वयः-अज्जाणं-आर्य भिक्षुओं को आसंदी पलिअंकेसु-आसंदी और पर्यंकों पर मंचं-खाट पर वा-अथवा आसालएसु-सिंहासन वा कुर्सी पर आसइत्तु-बैठने से तथा सइत्तुसोने से अणायरिअं-अनाचरित नामक दोष लगता है। .. मूलार्थ आसंदी, पर्यंक, खाट और कुर्सी आदि गृहस्थों के आसनों पर बैठने से तथा सोने से आर्य (श्रेष्ठ आचार विचार वाले) मुनियों को अनाचरित नामक दोष लगता टीका-इस गाथा में चौदहवें स्थान के वर्णन के बाद पंदरहवें स्थान के विषय में वर्णन किया गया है। जैसे कि, आर्य भिक्षुओं को आसंदी (भद्रासन), पर्यंक (पलंग), मंच (खाट-चारपाई), आशालक (सिंहासन और कुर्सी आदि), पर बैठने से तथा सोने से अनाचार रूप दोष लगता है। कारण यह है कि, उक्त आसनों का मध्यभाग शुषिर (पोला) होता है, जिससे वहाँ पर बैठे हुए जीव दृष्टि गोचर नहीं हो सकते और जब दृष्टि गोचर नहीं होते, तो फिर रक्षा कैसे हो सकती हैं ? सूत्र में जो 'आशालक' शब्द आया है, उसकी व्याख्या करते हुए षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [253
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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