SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्थानिका- अब आचार्य, 'गृहस्थ के पात्रों में भोजन क्यों नहीं करना चाहिए ?' इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं: सीओदगसमारंभे , मत्तधोअणछड्डणे / जाइंछंनंति भूआई, दिट्ठो तत्थ असंजमो॥५२॥ शीतोदकसमारम्भे , मात्रकधावनोज्झने / यानि छिद्यन्ते भूतानि, दृष्टः तत्र असंयमः // 52 // पदार्थान्वयः- सीओदगसमारंभे-शीत जल के समारम्भ से तथा मत्तधोअणछड्डुणे-पात्र धौत-जल के गिराने से जाइं-जो भूआई-प्राणी छंनंति-हनन होते हैं, उससे तत्थ-गृहस्थ के पात्रों में भोजन करने में केवल ज्ञानियों ने असंजमो-पूरा-पूरा असंयम दिट्ठो-देखा मूलार्थ-पूर्वोक्त गृहस्थ पात्रों में भोजन करने से एक तो धोने आदि के लिए कच्चे जल का आरम्भ होता है और दूसरे धौत जल को अयत्ना से यत्र तत्र गिराने से जीवों का घात होता है। अतः केवल ज्ञानी तीर्थंकर देवों ने गृहस्थ के पात्रों में जो भोजन किया जाता है उसमें जीव विराधना-रूप असंयम स्पष्टतः देखा है। . टीका-इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि, जो साधु गृहस्थों के बर्तनों में आहार करते हैं, उनको इस प्रकार के दोष लगते हैं। साधु इन पात्रों में भोजन करेगा, इस आशय से गृहस्थ पहले ही उन पात्रों को सचित्त जल से धो डालते हैं और साध के भोजन करने के बाद फिर उन बर्तनों को धोते हैं एवं उस पानी को अयत्न-पर्वक गिराते हैं जिससे नाना प्रकार के सूक्ष्म-वादर जीवों की हिंसा हो जाती है। इस लिए श्री तीर्थंकर देवों ने अपने ज्ञान में देखा है कि, गृहस्थों के पात्रों में भोजन करने से असंयम की प्रवृत्ति बढ़ती है और यह उपदेश किया कि, दया-प्रेमी साधु को गृहस्थों के पात्रों में कदापि भोजन नहीं करना चाहिए। सूत्र में जो 'छंनंति' क्रिया पद दिया हुआ है उसके स्थान में कई प्रतियों में 'छप्पैति'-'क्षिप्यन्ते' पद भी लिखा हुआ मिलता है। परन्तु 'छंनंति'-'छप्पंति' के अर्थ में कोई अन्तर नहीं है। दोनों का भावार्थ वस्तुतः एक-सा ही है। उत्थानिका- अब आचार्य, 'गृहस्थ पात्र में भोजन करने से होने वाले दोषों का वर्णन करते हुए' इस स्थान का उपसंहार करते हैं: पच्छा कम्मं पुरेकम्मं, सिआ तत्थ न कप्पइ। एअमटुं न भुंजंति, निग्गंथा गिहिभायणे॥५३॥ पश्चात्कर्म पुरः कर्म, स्यात् तत्र न कल्पते। एतदर्थं न भुञ्जते, निर्ग्रन्था गृहिभाजने॥५३॥ . __ पदार्थान्वयः- तत्थ-गृहस्थों के पात्रों में भोजन करना साधु को न कप्पइ-नहीं 252] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy