SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तस्मादशनपानादि , क्रीतमौदेशिकमाहृतम् / वर्जयन्ति स्थितात्मानो, निर्ग्रन्थाः धर्मजीविनः // 50 // * पदार्थान्वयः- तम्हा-इस लिए ठिअप्पाणो-स्थिर है आत्मा जिन की ऐसे धम्मजीविणो-धर्म पूर्वक जीवन व्यतीत करने वाले निग्गंथा-निर्ग्रन्थ कीअं-मोल लिया हुआ उद्दसि (यं)-साधु का उद्देश्य रखकर बनाया हुआ तथा आहडं-साधु के सम्मुख लाया हुआ असणपाणाई-अन्न-पानी आदि आहार को वज्जयन्ति-छोड़ देते हैं (ग्रहण नहीं करते) - मूलार्थ-जिनकी आत्मा सर्वथा स्थिर है और जो धर्म पूर्वक जीवन व्यतीत करने वाले हैं, वे निष्परिग्रही साधु नियाग, क्रीत-कृत औद्देशिक और आहृत अशनपानादि पदार्थ कदापि ग्रहण नहीं करते। टीका-इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि, जो धर्म-क्रिया-पूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने वाले निर्ग्रन्थ हैं, वे मोल का लिया हुआ आहार, साधु का उद्देश्य रख कर तैयार किया हुआ आहार, साधु के पास साधु के निमित्त से लाया हुआ आहार, अशन, पान, खादिम और स्वादिम अकल्पनीय होने के कारण कभी नहीं ग्रहण करते हैं। चाहे कोई कितना ही क्यों न आग्रह करे, पर वे अकल्पनीय पदार्थ की ओर 'ग्रहण करने की इच्छा से' आँख उठा कर भी नहीं देखते हैं। यह बात उन्हीं निर्ग्रन्थों की है, जो धर्म में स्थित हैं और धर्म-जीवी होने से अपना तथा दूसरों का कल्याण करने वाले हैं। उत्थानिका- अब आचार्य, गृहि-भाजन-नामक' चौदहवें स्थान का वर्णन करते हैं: कंसेसु कंसपाएसु, कुंडमोएसु वा पुणो। भुंजतो असणपाणाई, आयारा परिभस्सइ॥५१॥ कंसेषु कंसपात्रेषु, कुण्डमोदेषु वा पुनः। भुञ्जानोऽशनपानादि , आचारात् परिभ्रश्यति॥५१॥ - पदार्थान्वयः-कंसेसु-कांसी की कटोरी में पुणो-तथा कंसपाएसु-कांसी की थाली में वा-तथा कुंडमोएसु-मिट्टी के कुंडे में असणपाणाइं-अन्न पानी आदि भुंजंतो-भोगता हुआ साधु आयारा-अपने साधु आचार से परिभस्सइ-भ्रष्ट हो जाता है। - मूलार्थ-जो मुनि कांसी की कटोरी में, कांसी की थाली में तथा मिट्टी के कुंडे में, अशन-पान आदि भोजन करता है। वह अपने साध्वाचार से सर्वथा भ्रष्ट हो जाता है। टीका-अब आचार्य श्री 'गृहिभाजन' नामक चौदहवें स्थान के विषय में कहते हैं। इस स्थान का यह आशय है कि, साधु गृहस्थों के पात्रों में आहार न करे। क्योंकि, जो साधु कांसी की कटोरी में, कांसी की थाली में तथा मिट्टी के कुंडों जो हाथी के पैर के आकार की तरह बने हुए होते हैं "में अशन, पान, खादिम, और स्वादिम - चारों प्रकार का आहार करता है, वह साधु-आचार से पतित हो जाता है। अतएव साधु-वृत्ति पालन करने के लिए साधु को 'यदि सर्वथा निर्दोष हो तो भी' गृहस्थों के पात्रों में कदापि भोजन नहीं करना चाहिए। षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [251
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy