________________ योग्य (कल्पनीय) हों, तो साधु ग्रहण कर ले। यदि ये सभी पदार्थ अकल्पनीय हों अर्थात् सदोष हों, तो कदापि ग्रहण न करे। कारण कि, सदोष पदार्थों के आसेवन से आत्मा में जो पूर्णतया अहिंसा के भाव होते हैं, उन में बाधा उपस्थित हो जाती है। अतएव साधु को सदा कल्पनीय पदार्थों के ग्रहण करने की ओर ही ध्यान देना चाहिए। अकल्पनीय पदार्थों के ग्रहण की ओर नहीं। अकल्पनीय-पदार्थों के ग्रहण का और तो क्या ? कभी भूलकर मन से विचार भी नहीं करना चाहिए। उत्थानिका- अब आचार्य, फिर उक्त स्थान के विषय में ही करते हैं:जे नियागं ममायंति, कीअमुद्देसिआहडं / वहंते समणुजाणंति, इअ उत्तं महेसिणा॥४९॥ ये नियागं ममायन्ति, क्रीतमौद्देशिकमाहृतम् / वधं ते समनुजानन्ति, इत्युक्तं महर्षिणा॥४९॥ पदार्थान्वयः-जे-जो कोई साधु नियागं-नित्य आमंत्रित आहार तथा कीअं-मोल लिया हुआ आहार तथा उद्देसि (यं)-औदेशिक आहार तथा आहडं-साधु के वास्ते सम्मुख लाया हुआ आहार ममायंति-ग्रहण करते हैं ते-वे साधु वह-प्राणि वध की समणुजाणंति-अनुमोदना करते हैं इअ-इस प्रकार महेसिणा-पूर्व महर्षि ने उत्तं-कथन किया है। मूलार्थ-भगवान् महावीर ने बतलाया है कि, जो विचार-विलुप्त-साधु, नित्यआमंत्रित-आहार, क्रीत-कृत-आहार, औद्देशिक-आहार तथा आहृत-आहार ग्रहण करते हैं, वे प्रकट रूप में षट्जीवनिकाय के वध की अनुमोदना करते हैं। ___टीका-'हे भगवन् ! आप कहाँ फिरते रहेंगे। कृपया नित्य प्रति एक मेरे ही घर से आहार ले लिया करें।' गृहस्थ के इस निवेदन पर 'मामकीनोऽयं पिण्डः' की भावना रखते हुए जो रस-लोलुप, द्रव्य-लिङ्गी साधु नित्य प्रति एक ही घर से आहार लाते हैं तथा क्रीत-कृत (मोल लिया हुआ) औद्देशिक (साधु के वास्ते तैयार किया हुआ) और आहृत (साधु के स्थान पर दानार्थ लाया हुआ) आहार ग्रहण करते हैं, वे सब प्रकार से प्रत्यक्ष षट्-कायिक जीवों के वध के (घात के) अनुमोदक हैं। ऐसों को सर्व जीव रक्षक के विमल विशेषणों से समलंकृत करना, नितान्त अज्ञानता है। अतएव प्राचीन काल के पवित्रात्मा, महर्षि, भगवान् महावीर ने ऐसे भ्रष्ट साधुओं की भ्रष्टता का वर्णन कर इनके पूर्ण बहिष्कार की अटल योजना की है। अतः जिन्हें अपना धर्म पालन करना है उन्हें ये अकल्पनीय आहार कदापि नहीं लेने चाहिए। इस गाथा में जो नियागं' और 'ममायंति' शब्द आए हैं, उनके लिए टीकाकार और अवचूरिकार ने क्रमशः अपनी टीका और अवचूरि में इस प्रकार लिखा है- 'नियागमिति, नित्यमामन्त्रितं पिण्डं। ममायंति मामकीनऽयं पिण्ड इति कृत्वा गृह्णन्ति।' उत्थानिका- अब आचार्य, इस कथन का उपसंहार करते हैं:तम्हा असणपाणाई, कीअमुद्देसिआहडं वजयंति ठिअप्पाणो, निग्गंथा धम्मजीविणो॥५०॥ 250] दशवैकालिकसूत्रम् ... [षष्ठाध्ययनम्