________________ यानि चत्वारि अभोज्यानि, ऋषीणामाहारादीनि / तानि तु विवर्जयन्, संयममनुपालयेत् // 47 // * पदार्थान्वयः-जाई-जो चत्तारि-चार आहारमाइणि-आहार आदि पदार्थ इसिणासाधुओं को भुज्जाइं-अभोज्य हैं (अकल्पनीय हैं) साधु ताई-उन चारों को तु-निश्चय कर के विविजंतो-वर्जता हुआ संजमं-संयम की अणुपालए-पालना करे। मूलार्थ-जो चार आहार आदि पदार्थ साधुओं को अकल्पनीय हैं, साधु उन चारों को सभी प्रकार से छोड़ता हुआ अपने संयम की निरंतर पालना करे। टीका-पूर्व जो पाँच महाव्रतों और छ: कायों का वर्णन किया है, वह साधु के मूल गुणों का वर्णन किया है। अब आचार्य महाराज, क्रम प्राप्त अकल्प आदि छ: उत्तर गुणों का वर्णन करते हैं। क्योंकि, जिस प्रकार बाड़ खेत की रक्षा करती है, ठीक इसी प्रकार उत्तर गुण, मूल गुणों की रक्षा करते हैं। मूल गुणों की रक्षा के लिए उत्तर गुणों का होना परमावश्यक है। यह तेहरवाँ स्थान अकल्प नामक है। इसके दो भेद हैं-शिष्यक-अकल्प और स्थापना-अकल्प। शिष्यक-अकल्प उसका नाम है-जिस शिष्य ने अभी तक पिण्डैषणा आदि अध्ययनों द्वारा भिक्षा विधि का अध्ययन नहीं किया और ना ही उसने सम्यक्तया भिक्षाचारी के दोषों का ज्ञान प्राप्त किया है. उस शिष्य का लाया हआ आहार गीतार्थ-मुनियों के लिए अकल्पनीय होत द्वितीय स्थापना-अकंल्प है। जैसे कि, आहार, शय्या, वस्त्र और पात्र-ये चारों ही पदार्थ यदि सदोष हैं तो साधुओं को अकल्पनीय हैं। क्योंकि, ये संयम के अनुपकारी हैं। अतएव साधु अकल्पनीय पदार्थों को छोड़ता हुआ शुद्ध-संयम की भावों से पालना करे, जिससे आत्मा का कल्याण हो सके तथा यह बात भी भली प्रकार से मानी हुई है कि, उत्तर गुणों की विराधना करने से मूल गुणों में हानि पहुँचे बिना नहीं रह सकती। अस्तु, मूल गुणों की रक्षा के लिए उत्तर गुणों की शुद्धि की ओर विशेष सावधानी रखनी चाहिए। ... उत्थानिका- अब आचार्य, फिर इसी विषय को स्फुट करते हैं:पिंडं सिजं च वत्थं च, चउत्थं पायमेव य। अकप्पिन इच्छिज्जा, पडिगाहिज कप्पिअं॥४८॥ पिण्डं शय्यां च वस्त्रं च, चतुर्थं पात्रमेव च। अकल्पिकं नेच्छेत्, प्रतिगृह्णीयात् कल्पिकम्॥४८॥ पदार्थान्वयः- पिंडं-आहार च-तथा सिजं-शय्या च-तथा वत्थं-वस्त्र य-तथा एव-इसी प्रकार चउत्थं-चतुर्थ पायं-पात्र, ये सब यदि अकप्पिअं-अकल्पनीय हों तो न इच्छिज्जाग्रहण न करे तथा कप्पिअं-यदि कल्पनीय हों तो पडिगाहिज्ज-ग्रहण करे। मूलार्थ-आहार, शय्या, वस्त्र और पात्र यदि ये चारों पदार्थ सदोष हों तो साधु ग्रहण न करे, और यदि निर्दोष हों तो ग्रहण कर ले। टीका-इस गाथा में कल्पनीय (निर्दोष) और अकल्पनीय (सदोष) पदार्थों का वर्णन किया गया है। जैसे कि, आहार, उपाश्रय, वस्त्र तथा पात्र आदि यदि साधु-वृत्ति के सर्वथा षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [249