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________________ काय की हिंसा से सर्वथा निवृत्ति करनी चाहिए। क्योंकि, श्रेष्ठ आत्माएँ जब सब प्रकार की हिंसा से निवृत्त हो जाती हैं, तब उनको पूर्णतया समाधि-भाव प्राप्त हो जाता है / हिंसा करते हुए कभी कहीं किसी को समाधि मिली हो, यह संसार के आज तक के इतिहास में कहीं भी अङ्कित नहीं मिलता है। प्रत्युत हिंसा से पूरी-पूरी अशान्ति ही मिली है। इसके उदाहरण तो पृष्ठ-पृष्ठ पर एक से एक बढ़ चढ़ कर लिखे हुए मिलेंगे। वास्तव में जो अपनी शान्ति के लिए दूसरों को अशान्ति पहुँचाता है, उसे शान्ति कैसे मिल सकती है। जो दूसरों के लिए खंदक (गड्ढ़ा) खोदता है उसको कुआँ तैयार मिलता है। उत्थानिका- अब आचार्य, उक्त कथन का उपसंहार करते हैं:तम्हा एअंविआणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं। तसकायसमारंभं , जावजीवई वजए॥४६॥ तस्मादेतं. विज्ञाय, दोषं दुर्गतिवर्द्धनम्। .. त्रसकाय समारम्भं, यावज्जीवं वर्जयेत्॥४६॥ पदार्थान्वयः-तम्हा-इसलिए एअं-इस दुग्गइवड्ढणं-दुर्गति के बढ़ाने वाले दोसंदोष को विआणित्ता-जान कर साधु तसकायसमारंभं-त्रस-काय के समारम्भ को जावजीवाइंयावज्जीवन के लिए वजए-वर्ज दे। मूलार्थ-इसलिए इस दुर्गति-वर्द्धक दोष को भली भाँति जान कर, साधु को त्रस-काय के समारम्भ का सर्वथा यावज्जीवन के लिए परित्याग कर देना चाहिए। टीका-इस गाथा में त्रस-काय के प्रस्तुत विषय का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि, त्रस-काय की हिंसा पूर्णतया दुर्गति सम्वर्द्धिका है। त्रस-काय की हिंसा ने न तो अतीत-काल में किसी को सुगति दी और न भविष्य में देगी। अतः दुर्गति से डरने वाले और सुगति की कामना करने वाले लोगों को त्रस-काय के समारम्भ का यावज्जीवन के लिए परित्याग कर देना चाहिए। यह बात भली प्रकार युक्ति-युक्त है कि, यावन्मात्र हिंसा एक प्रकार का ऋण है। जो जिस प्रकार प्राणियों को कष्ट देता है, प्रायः उसे उसी प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ता है। यदि ऐसा कहा जाए कि, इन सभी गाथाओं में हिंसा का फल दुर्गति बतलाया गया है, किन्तु नरक नहीं बतलाया गया इसका क्या कारण है ? तो शङ्का के समाधान में कहा जाता है कि, शास्त्र में नरक, तिर्यञ्च, कुमनुष्य और सेवक-देव ये चारों दुर्गतियाँ प्रतिपादित की गई हैं और हिंसक-जीव चारों ही दुर्गतियों में नाना प्रकार के कष्टों को भोगता रहता है। अतएव हिंसा का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए जिससे दुर्गतियों की अपेक्षा सिद्ध, देव, मनुष्य और सुकुलरूप-सद्गतियों की प्राप्ति हो सके। ___ उत्थानिका- अब आचार्य, 'मूल गुणों के कथन के पश्चात् उत्तर गुणों का कथन करते हुए' 'अकल्प' नामक तेहरवें स्थान के विषय में कहते हैं: जाइं चत्तारि भुजाई, इसिणा हारमाइणि। ताइंतु विवजंतो, संजमं अणुपालए॥४७॥ 248] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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