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________________ तथ्य की ओर संकेत करती हैतवं चिमं संजम जोगं च, सज्झाय जोगं च सया अहिट्ठिए। सूरे व सेणाइ समत्तमाउहे, अलमप्पणो होइ अलं परेसिं॥ (अध्ययन-8, गाथा-62) बदलते परिप्रेक्ष्य में दशवैकालिक सूत्र यद्यपि प्रचलित मान्यतानुसार 'दशवैकालिक सूत्र' आचार्य शय्यंभव ने अपने अल्पायु पुत्र मनक के लिए लिखा था तथापि यह समस्त श्रमणों, मुनियों, यतियों तथा निर्ग्रन्थों के लिए समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। कलापक्ष और भावपक्ष की दृष्टि से प्रस्तुत आगम एक सफल कृति है। कला पक्ष के अन्तर्गत भाषा-शैली, शब्द-योजना, अलंकार, सुन्दर सूक्तियाँ आदि परिगणित किए जा सकते हैं। इस की सुष्ठ तथा परिमार्जित भाषां भावों की अभिव्यंजना में पूरी तरह सक्षम है। शैली प्रवाह पूर्ण तथा बोधगम्य है। भाव पक्ष की दृष्टि से शांत रस से परिपूर्ण प्रस्तुत ग्रन्थ एक अमूल्य निधि है। संसार की निस्सारता तथा वैराग्य और संयम की. महती प्रेरणा देने वाला यह सूत्र मुनि मात्र के लिए प्रकाश स्तम्भ है। युग प्रभाव से ऐसा आभास होने लगता है कि क्या बदलते परिप्रेक्ष्य में मुनि इस सूत्र के अनुरूप चल सकता है ? निस्संदेह जीवन मल्य बदल रहे हैं परन्त.जो मनि कल्याण मार्ग का अनगामी है उसे इस सत्र को अपनाना ही चाहिए। साधु की जीवन चर्या के मूलभूत व्रतों में कभी परिवर्तन नहीं आ सकता। रीति बदल सकती है, नीति नहीं। रीति बाह्य क्रियाएँ हैं परन्तु नीति आंतरिक गुण है जो कभी नहीं बदल सकते क्योंकि जैन श्रमणों के संयमी जीवन के ये अंग हैं। भगवान् महावीर का मार्ग उत्सर्ग मार्ग है, अपवाद मार्ग नहीं है, परन्तु युग गति के प्रभाव से शैथिल्य की आशंका से इन्कार भी नहीं किया जा सकता। अस्तु'दशवैकालिक सूत्र' श्रमणीय जीवन की आधारशिला' है। दशवैकालिक सूत्र में समन्वय भावना . समन्वय भावना भारतीय संस्कृति का मूल तत्त्व है। यही कारण है कि उसने बिना जाति भेद के सब के लिए मुक्ति द्वार खोल दिये। 'दशवैकालिक सूत्र' भगवान् महावीर के उपदेशों का सार है जिस में जाति, कुल, वर्ण-भेद आदि को महत्त्व न देकर संयम, त्याग तथा आंतरिक गुणों को स्थान दिया गया है। भगवान् महावीर ने अपने युग में उन लोगों को श्रमण संघ में सम्मिलित किया था जिन्हें अस्पृश्य तथा नीच समझकर अभिजात्य वर्ग द्वारा अपमानित किया जाता था। 'दशवैकालिक सूत्र' के दशम अध्ययन की 19 वीं गाथा इसी तथ्य की व्यञ्जक है कि साधु जाति-मद, कुल-मद, रुप मद, लाभ मद तथा ज्ञानादि मदों का त्याग करे। यहाँ 'जातिमद' शब्द विशेष अर्थ का द्योतक है। इस शब्द से यह ध्वनित होता है कि जाति आदि का मद भगवान् के शासन में वर्जित था क्योंकि उनके संघ में सभी जातियों के लोग बिना भेदभाव के सम्मिलित हो सकते थे। यही उनकी समन्वय भावना थी। कविवर हरजस राय ओसवाल की प्रस्तुत काव्य पंक्ति इसी तथ्य को पुष्ट करती है- 'जाति को काम नहिं जिन मारग संजम को प्रभु आदर xxvii
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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