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________________ मनन और अनुशीलन के बिना श्रमण अथवा निर्ग्रन्थ की संयम यात्रा अधूरी रह जाती है। दस अध्ययनों तथा गद्य-पद्य शैली में रचित प्रस्तुत आगम विभिन्न अवसरों पर मुनि को अनूठा सन्देश एवं परामर्श देता है। यहाँ मैं परामर्श शब्द का प्रयोग इस लिए कर रहा हूँ कि त्याग का मार्ग आत्म-कल्याण का मार्ग है, यह दण्ड नहीं है। इसमें स्थान-स्थान पर श्रमण को सावधान किया गया है और शेष उसकी चेतना पर छोड़ दिया गया है। यदि वह मोक्ष मार्ग और आत्म-कल्याण का इच्छुक है तो उसे आहत वाणी को अंगीकार करना ही चाहिए। यह सूत्र श्रमणों की आचार संहिता' है। ___ 'दशवैकालिक सूत्र' में मुनि को अपने संयम की रक्षा के लिए समय-समय पर सुझाव दिए गए हैं। हेय और उपादेय (छोड़ने और ग्रहण करने योग्य) में उसे किस को अपनाना है यह उसके चिंतन और विवेक पर अवलम्बित है। उसे आत्म-संयम और अक्षय आनन्द की प्राप्ति के लिए बाह्य दृष्टि का त्याग कर भीतर झाँकना होगा। उसकी आंतरिक सुन्दरता ही उसका श्रमणत्व है और आंतरिक ज्ञान ही उसकी शोभा है। इसी शोभा से वह पूज्य और वन्दनीय है। 'दशवैकालिक सूत्र' के प्रणेता आचार्य शय्यंभव हैं। उसमें उन्होंने स्पष्ट किया है कि श्रमण सांसारिकता से दूर रहे। ब्रह्मचर्य उसका सौन्दर्य है। संसार नश्वर है परन्तु उसे अनश्वर की ओर अग्रसर होना है। अनश्वर, मोक्ष है और वह उसके चरम आनन्द की उपलब्धि है। उसे आहार-विहार में विवेक का सम्बल लेना होगा। उसे अपने गुरु की विनय-भक्ति करनी चाहिए। उसे अपनी इन्द्रियों को ऐसे वश में रखना चाहिए जैसे कछुआ अनिष्ट की आशंका से अपनी इन्द्रियों को संकुचित कर लेता है। उसे भिक्षा वृत्ति में, चलने फिरने में, बोलने में, वस्तु के रखने-रखवाने में विवेक की आवश्यकता है। मुनि को संसार की समस्त एषणाओं से स्वयं को अलग कर लेना चाहिए। साधु को रस लोलुपता से बचना चाहिए। उसकी भिक्षावृत्ति को 'मधुकरी' शब्द से अभिहित किया गया है। यह संज्ञा अत्यन्त सार्थक तथा लाक्षणिक है। उसे भिक्षा ऐसे ग्रहण करनी चाहिए जैसे मधुप फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस ग्रहण करता है। ___ 'दशवैकालिक सूत्र' में आत्मार्थी भिक्षु को सुन्दर उपदेश दिया गया है। उसे प्रेरित किया गया है कि यदि वह यत्न से चले, यत्न पूर्वक खड़ा हो, यत्न पूर्वक बैठे, यत्न पूर्वक सोए, यत्न पूर्वक भोजन करे और यत्न पूर्वक बोले तो वह पाप कर्म का बन्ध नहीं करता। ये सब क्रियाएँ संयमी जीवन की आधार शिला हैं। एक गाथा द्रष्टव्य है जयं चरे जयं चिट्ठे, जयं मासे जयं सए। जयं भुंजंतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ॥ (चतुर्थ अध्याय, गाथा-8) साधु को सुन्दर उक्तियों तथा उपमानों से संयम मार्ग में दृढ़ रहने की प्रेरणा की गई है। प्रस्तुत आगम में स्पष्ट किया गया है कि बाह्याभ्यन्तर तप का धारक, संयम-योग का पालक एवं स्वाध्याय-योग निष्ठ साधु , इन्द्रिय और कषाय रूप सेना से घिरा हुआ, तपादि शस्त्रों से आत्मरक्षा करने में और कर्म शत्रुओं को पराजित करने में उसी प्रकार समर्थ होता है, जिस प्रकार एक शस्त्रधारी वीर योद्धा अपनी विशाल सेना से शत्रुओं का मुँह मोड़ने में समर्थ होता है। 'दशवैकालिक सूत्र' की निम्नलिखित गाथा इसी xxvi
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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