________________ वनस्पतिं विहिंसन्, हिनस्ति तु तदाश्रितान्। . त्रसांश्च विविधान् प्राणिनः, चाक्षुषाँश्चाचाक्षुषान् // 42 // पदार्थान्वयः- वणस्सइं-वनस्पति काय की विहिंसंतो-हिंसा करता हुआ तयस्सिएतदाश्रित तसे-त्रस अ-और विविहेपाणे-नाना प्रकार के स्थावर प्राणी तथा चक्खुसे-आँखों से देखे जाने वाले चाक्षुष अ-और अचक्खसे-आँखों से न देखे जाने वाले अचाक्षष सभी जीवों की हिंसइ उ-हिंसा करता है। मूलार्थ- वनस्पति-काय की हिंसा करता हुआ, केवल वनस्पति-काय की ही हिंसा नहीं करता है। अपितु वह वनस्पति-काय के आश्रित जो भी त्रस स्थावर, चाक्षुषआचाक्षुष जीव हैं, उन सभी की हिंसा करता है। टीका-इस गाथा में यह वर्णन है कि वनस्पति-काय की हिंसा करता हुआ केवल वनस्पति-काय की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु वह जो नाना प्रकार के जीव वनस्पति के आश्रित होते हैं, उन त्रस-स्थावर, चाक्षुष-अचाक्षुष सभी प्रकार के जीवों की हिंसा करता है। सूत्रकार के कथन का तात्पर्य यह है कि, वनस्पति-काय की हिंसा कदापि नहीं करनी चाहिए। क्योंकि वनस्पति की हिंसा करना सभी जीवों की हिंसा करना है। यदि कोई यह कहे कि तदाश्रित जीवों का क्या पता ? वे उस समय उसमें हों या न हों; परन्तु यह कहना निश्चित (सम्भव) नहीं है, उसको बिना सर्वज्ञ के कौन मेट (दूर कर) सकता है। उत्थानिका- अब आचार्य, इस वनस्पति के अधिकार का उपसंहार करते हैं;तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गई वड्ढणं। वणस्सइसमारंभं , जावजीवाइं वजए॥४३॥ तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गति-वर्द्धनम्। वनस्पतिसमारम्भं ,यावज्जीवं वर्जयेत्॥४३॥ पदार्थान्वयः- तम्हा-इसलिए एअं-इस दुग्गइ वड्ढणं-दुर्गति के बढ़ाने वाले दोसंदोष को विआणित्ता-जान कर वणस्सइ समारंभं-वनस्पति-काय के समारंभ को जावजीवाईयावज्जीवन के लिए वज्जए-वर्ज दे। मूलार्थ- यह वनस्पति काय का समारम्भ, दुर्गति के बढ़ाने वाला है। अतः इस दोष को भली भाँति जान कर, साधुको वनस्पति-काय का समारम्भ जीवन भर के लिए छोड़ देना चाहिए। टीका-इस गाथा में इस बात का उपदेश किया गया है कि, वनस्पति काय के समारम्भ का फल भगवान् महावीर प्रभु ने दुर्गति के बढ़ाने वाला कथन किया है। इसलिए इस दोष को सम्यक्तया जान कर इस का समारम्भ सर्वथा छोड़ देना चाहिए। जिससे आत्मा सदैव अहिंसा-वृत्ति द्वारा आत्म-समाधि प्राप्त कर सके। क्योंकि प्रत्येक आत्मा को सुख देने आत्म-समाधि की प्राप्ति होती है। 'सुख दीयां सुख होत है, दुख दीयां दुख होत'। उत्थानिका- अब आचार्य, बारहवें स्थान के विषय में कहते हैं: 246] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्