________________ टीका-इस गाथा में वायु-काय के प्रकरण का उपसंहार करते हुए आचार्य जी कहते हैं कि, वायु-काय की हिंसा से उत्तरोत्तर दुर्गति की उपलब्धि होती है, अतः इस दुर्गति के मूलकारणीभूत पूर्वोक्त दोषों को सम्यक्तया जानकर बुद्धिमान् साधु , वायु-काय के समारम्भ को सर्वथा छोड़ देते हैं। वे कदापि पंखा आदि से वायु-काय का समारम्भ नहीं करते और ना ही औरों से करवाते हैं तथा जो करते हैं, उनकी अनुमोदना भी नहीं करते। अपितु अपनी आत्मा के समान प्रत्येक प्राणी को जान कर सर्वदा अहिंसा के भावों से अपनी आत्मा की विशुद्धि करते रहते हैं। उत्थानिका- अब आचार्य, ग्यारहवें स्थान के विषय में कहते हैं:वणस्सइंन हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिआ॥४१॥ वनस्पतिं न हिंसन्ति, मनसा वचसा कायेन। त्रिविधेन करणयोगेन, संयताः सुसमाहिताः॥४१॥ पदार्थान्वयः- सुसमाहिआ-पवित्र समाधि वाले संजया-साधु मणसा-मन से वयसावचन से कायसा-काय से अर्थात् तिविहेणकरणजोएण-तीन करण और तीन योग से वणस्सइंवनस्पति काय की न हिंसंति-हिंसा नहीं करते हैं। मूलार्थ-जो पवित्र-समाधि-भाव रखने वाले मुनि हैं, वे तीन करण और तीन योग से कदापि वनस्पति-काय की हिंसा नहीं करते हैं। टीका-इस गाथा में वनस्पति-काय के विषय में वर्णन किया गया है। जो श्रेष्ठ मुनि हैं, जिनकी आत्मा सुसमाहित है, वे मन, वचन और काय द्वारा तथा कृत, कारित और अनुमोदन द्वारा अर्थात् तीन योग और तीन करण से वनस्पति-काय की हिंसा का परित्याग करते हैं। 'आचाराङ्गसूत्र'' में प्रतिपादन किया है कि, जैसी अवस्था मनुष्य की होती है, ठीक वैसी अवस्था वनस्पति की भी होती है। इसीलिए दया-धारकों को वनस्पति-काय की हिंसा कदापि नहीं करनी चाहिए। उत्थानिका- अब आचार्य, फिर इसी अधिकार को स्पष्टतया प्रतिपादित करते हैं:वणस्सइं विहिंसंतो, हिंसइ उ तयस्सिए। तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे॥४२॥ 1 डा जगदीश चन्द्र वसुने इस बात को पूर्ण रूप से प्रत्यक्ष प्रमाणित कर दिया है। उन्होंने डंके की चोट से सिद्ध कर दिया है कि, मनुष्यों की क्रियाओं के समान ही वनस्पति की भी क्रियाएँ होती हैं / जैसे निन्दा-स्तुति, हर्ष-शोक आदि भाव मनुष्यों में होते हैं, वैसे ही वनस्पतियों में भी होते हैं। अन्तर केवल व्यक्तता और अव्यक्तता का है। मनुष्यों में ये व्यक्त रूप से होते हैं और वनस्पतियों में अव्यक्त रूप से। साम्प्रदायिक मान्यताओं की प्रचण्ड आँधी में आँखें मूंदकर चलने वाले सज्जन ध्यान दें और वनस्पतियों पर भी दया भाव रखें। - संपादक। षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [245