________________ विषय में कहते हैं जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं। न ते वायमुईरंति, जयं परिहरंति अ॥३९॥ यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा, कम्बलं पादपोंच्छनम्। न ते वातमुदीरयन्ति, यतं परिहरन्ति च॥३९॥ __ पदार्थान्वयः-जंपि-जो भी वत्थं-वस्त्र व-तथा पाय-पात्र वा-तथा कंबलं-कम्बल पायपुंछणं-पाद-प्रोंछन आदि उपकरण हैं, तद्द्वारा भी ते-वे साधुवायं-वायु-काय की न उईरंतिउदीरणा नहीं करते; किन्तु जयं-यत्न-पूर्वक ही इन उपकरणों को परिहरंति-धारण करते हैं अ-'च'. शब्द समुच्चय अर्थ में है। मूलार्थ-दयार्द्र-हृदय-संयमी, अपने पास में जो वस्त्र, पात्र, कम्बल तथा पाद-प्रोंछन आदि उपकरण रखते हैं, तद् द्वारा भी अयत्ना से कभी वायु-काय की उदीरणा नहीं करते। बल्कि गृहीत उपकरणों को यत्न-पूर्वक ही परिभोग और परिहाररूप काम में लाते हैं। टीका-साधुओं के पास जो वस्त्र, पात्र, कम्बल तथा पाद-प्रोंछन आदि धर्मोपकरण रहते हैं, उनके द्वारा भी कभी वायु-काय की उदीरणा नहीं करते। कारण यह है कि, वायु-काय की उदीरणा द्वारा वायु-काय की हिंसा हो जाती है। इस लिए वे उक्त धर्मोपकरणों को यत्ना के साथ उठाते हैं, (रखते हैं)। अर्थात्-असावधानी से ऐसी कोई स्फोटनादि क्रियाएँ नहीं करते हैं कि जिससे वायु-काय की विराधना हो जाए।साधुओं की वस्त्र-पात्रादि के उठाने और धरने की समस्त क्रियाएँ यत्न पूर्वक ही होती हैं, जिस से वायु-काय की विराधना न होने से वस्त्र, पात्रादि धर्मोपकरणों के धारण करने में साधुओं को कोई आपत्ति नहीं होती है: उत्थानिका- अब आचार्य, उक्त स्थान का उपसंहार करते हैं:तम्हा एअंविआणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं।' वाउकायसमारंभं , जावजीवाइं वजए॥४०॥ तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गति-वर्द्धनम्। वायुकायसमारम्भं , यावजीवं वर्जयेत्॥४०॥ . ___ पदार्थान्वयः- तम्हा-इसीलिए एअं-इस दुग्गइवड्ढणं-दुर्गति के बढ़ाने वाले दोसं-दोष को विआणित्ता-जान कर साधु जावजीवाइं-यावज्जीवन के लिए वाउकायसमारंभंवायु-काय के समारम्भ को वजए-वर्ज दे। मूलार्थ-अतएव साधुओं का कर्तव्य है कि, वे इस दुर्गति के बढ़ाने वाले दोष को सम्यक्तया समझ कर यावज्जीवन के लिए वायु-काय के समारम्भ का परित्याग कर 244] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्