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________________ वास्ते भी किंचित् मात्र समारम्भ नहीं करते। कारण यह है कि, वे मुनि समझते हैं अग्नि का समारम्भ प्राणी मात्र के लिए अहितकर है। यह अग्नि सर्वरक्षक नहीं है किन्तु सर्वभक्षक है। इसमें जानेअनजाने जो भी जीव पड़ जाता है, वह ही भस्म होकर काल के गाल में पहुँच जाता है। उत्थानिका-अब आचार्य, इस अग्निकाय सम्बन्धी विषय का उपसंहार करते हैं:तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं। .. तेउकायसमारंभं , जावजीवाइं वजए॥३६॥ तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गतिवर्द्धनम्। तेजःकायसमारम्भं , यावज्जीवं वर्जयेत्॥३६॥ पदार्थान्वयः- तम्हा-इसी लिए एअं-इस दुग्गइवड्ढणं-दुर्गति के बढ़ाने वाले दोसं-दोष को विआणित्ता-भली भाँति जान कर साधु तेउकायसमारंभं-अग्निकाय के समारम्भ को जावजीवाइं-जीवन पर्यन्त के लिए वजए-वर्ज दे। मूलार्थ-अतएव इस दुर्गति-वर्द्धक महादोष को सम्यक्तया जान कर जीव-दयाप्रेमी साधु, अग्नि के समारम्भ को यावज्जीवन के लिए छोड़ दे। टीका-इस गाथा में अग्निकाय के समारम्भ का फल वर्णन किया गया है। जैसे कि, यावन्मात्र जो अग्निकाय का समारम्भ है वह सब दुर्गति के बढ़ाने का ही कारण है। इस लिए श्रेष्ठ साधु जन किसी भी प्रयोजन के लिए अग्निकाय का समारम्भ नहीं करते। अग्निकाय के समारम्भ से बचने के लिए, वे सदैव इस से पृथक् ही रहते हैं। वस्तुत: अपनी आत्मा के समान प्रत्येक जीव को जानने का यही फल है। यदि जान कर भी रक्षा न की तो फिर उसका जानना न जानने के बराबर है। उत्थानिका- अब आचार्य, दशम स्थान के विषय में कहते हैं:अणिलस्स समारंभं, बद्धा मन्त्रंति तारिसं। सावज्जबहुलं चेअं, ने ताइहिं सेविअं॥३७॥ अनिलस्य समारम्भं, बुद्धा मन्यन्ते तादृशम्। सावद्यबहुलं चैवं (तं), नैनं त्रायिभिः सेवितम्॥३७॥ पदार्थान्वयः- बुद्धा-तीर्थंकर देव एअंच-इसी प्रकार सावजबहुलं-सावद्य से बहुल अणिलस्य-वायुकाय के समारंभं-आरम्भ को तारिसं-अग्निकायिक आरम्भ के समान मनंति-मानते हैं, इसी वास्ते ताइहिं-षट्-काय संरक्षक मुनियों ने एअं-इस वायुकाय के समारम्भ को न सेविअं-सेवित नहीं किया है। मूलार्थ-श्री तीर्थंकर देव, अग्नि-कायिक समारम्भ के समान ही वायु-काय के समारम्भ को भी सावध बहुल (पाप-बहुल)मानते हैं। अतएव सर्वदा जगज्जीवों की रक्षा करने वाले साधुओं को इस वायुकाय के समारम्भ का सेवन कदापि नहीं करना चाहिए। 242] दशवैकालिकसूत्रम्-. [षष्ठाध्ययनम
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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