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________________ प्राच्या प्रतीच्यां वाऽपि, ऊर्ध्वमनुदिक्ष्वपि / अधो दक्षिणतो वापि, दहति उत्तरतोऽपि च // 34 // पदार्थान्वयः- यह अग्नि पाईणं-पूर्व दिशा में वावि-तथा पडिणं-पश्चिम दिशा में उड्ढे-ऊर्ध्व दिशा में तथा अणुदिसामवि-विदिशाओं में अहे-अधो दिशा में वावि-अथवा दाहिणओ-दक्षिण दिशा में अ-तथा उत्तरओ वि-उत्तर दिशा में भी अर्थात् सभी दिशाओं में सभी जीवों को दहे-दग्ध करती है। __ मूलार्थ यह अग्नि प्रज्वलित होकर पूर्व और पश्चिम, उत्तर और दक्षिण, उर्ध्व और अधः दिआओं में तथा ईशान आदि विदिशाओं में जो जीव हैं, उन सभी को स्पर्श करती हुई भस्मी-भूत कर देती है। टीका-इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि, अग्नि पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, उर्ध्व, अधो दिशाओं में तथा यावन्मात्र विदिशाओं में जो त्रस वा स्थावर जीव हैं उन सभी को भस्मी-भूत करती (दग्ध करती) है, क्योंकि यह अग्नि परम तीक्ष्ण शस्त्र है। सूत्र में जो 'पाईणं'- 'पड़िणं' आदि सप्तमी विभक्ति दी है वह षष्ठी विभक्ति के अर्थ में है। यह विभक्ति व्यत्यय संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत भाषा में प्रायः अधिक होता है।। -... यद्यपि 'अग्नि' शब्द वस्तुतः संस्कृत भाषा का होने से पुंल्लिङ्ग है, तथापि भाषा में प्रायः स्त्रीलिङ में ही इस का उच्चारण किया जाता है। अतः यहाँ टीका में भी इसी भाषा के मार्ग का अनुसरण किया है। : उत्थानिका- अब आचार्य, फिर इसी अग्नि के विषय में कहते हैं:भूआण मे समाधाओ, हव्ववाहो न संसओ। तं. पईवपयावट्ठा, संजया किंचि नारभे॥३५॥ भूतानामेष आघातः, हव्यवाहः न संशयः। तं. प्रदीपप्रतापार्थं, संयताः किञ्चित् नारभन्ते॥३५॥ पदार्थान्वयः-एसं-यह हव्वाहो-अग्नि भूआणं-प्राणी मात्र को आधाओ-आघात पहुँचाने वाली है, इसमें कुछ भी संसओ-संशय न-नहीं है। अतएव संजया-साधुतं-उस अग्नि का पईवपयावट्ठा-प्रदीप और प्रतापना के वास्ते किंचि-किंचित् मात्र भी नारभे-आरम्भ नहीं करते। मूलार्थ-यह अग्नि, प्राणिमात्र को आघात पहुँचाने वाली है, इस में किसी प्रकार का भी संशय नहीं है। अतएव जो संयम-पालक मुनि हैं, वे प्रदीप-प्रकाशक के लिए तथा प्रतापना-शीत-निवारणार्थ (सेकने के लिए) अर्थात् किसी भी कार्य के लिए किंचित् मात्र भी अग्निकाय का आरम्भ नहीं करते। टीका-इस गाथा में फिर अग्नि के विषय में ही वर्णन किया है। जैसे कि, इस संसार में जितने भी त्रस-स्थावर प्राणी गण हैं, उन सभी को यह अग्नि आघात पहुँचाने वाली (नष्ट करने वाली) है। इसमें संशय के लिए अण-मात्र भी स्थान नहीं है। इसीलिए जो धर्म के ज्ञाता विचक्षण मुनि हैं, वे अनिकाय का और तो क्या ? प्रदीप प्रज्वलित करने के लिए तथा प्रतापना के षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [241
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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