________________ से वे बेचारे अवश्य मारे जाते हैं। सारांश यह है कि, नाना प्रकार के जीव पृथ्वी-काय के आश्रित रहते हैं और पृथ्वी-काय की हिंसा करते समय साथ ही उन जीवों की भी हिंसा हो जाती है। उत्थानिका-अब आचार्य, पृथ्वी-काय की हिंसा का यावज्जीवन के लिए स्पष्टतः प्रतिषेध करते हैं: तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं। पुढविकायसमारंभं , जावजीवाइं वजए॥२९॥ तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गतिवर्द्धनम्। पृथ्वीकायसमारम्भं , यावज्जीवं विवर्जयेत्॥२९॥ पदार्थान्वयः- तम्हा-इस लिए एअं-इस दुग्गइवड्ढणं-दुर्गति के बढाने वाले दोसं-दोष को विआणित्ता-जानकर साधु पुढविकायसमारंभं-पृथ्वी-काय के समारंभ को जावजीवाइं-यावज्जीव के लिए वजए-वर्ज दे (त्याग दे) मूलार्थ-अतएव इस दुर्गति के बढ़ाने वाले भयंकर दोष को अच्छी तरह जानकर साधु , यावजीवन के लिए पृथ्वी-काय के समारंभ का परित्याग कर दे। टीका-इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि, जब नाना प्रकार के जीवों की हिंसा होती है, तब फिर क्या करना चाहिए ? इस शङ्का के उत्तर में सूत्रकार ने प्रतिपादन किया है कि, इसीलिए जो पूर्वोक्त दुर्गति के बढ़ाने वाले हिंसादि दोष हैं, उनको भली भाँति जानकर सुज्ञ-मुनिवरों को सर्वथा हिंसा का परित्याग कर देना चाहिए। कारण यह है कि, हिंसादि के दोषों से ही आत्मा दुर्गति के कष्टों को पाती है। यह हिंसा संसार में जितने भी दुःख हैं, उन सब का उत्पादन करने वाली और पालन-पोषण करने वाली सच्ची 'माँ' है। उत्थानिका- अब आचार्य, जलकाय नामक अष्टम स्थान के विषय में कहते हैं:आउकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया॥३०॥ अप्कायं न हिंसन्ति, मनसा वचसा कायेन। त्रिविधेन करणयोगेन, संयताः सुसमाहिताः॥३०॥ पदार्थान्वयः- सुसमाहिया-श्रेष्ठ समाधि वाले संजया-साधु आउकायं- अप्काय की भी मणसा-मन से वयसा-वचन से और कायसा-काय से अर्थात् तिविहेण करणजोएणतीन करण और तीन योग से न हिंसंति-हिंसा नहीं करते हैं। मलार्थ-श्रेष्ठ समाधि वाले साधु , अप्काय के जीवों की भी तीन करण और तीन योग से कभी हिंसा नहीं करते। टीका-इस गाथा में आठवें स्थान के विषय में कथन किया गया है। जैसे कि, श्रेष्ठ२३८] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्