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________________ काय की मणसा-मन से वयसा-वचन से और कायसा-काय तिविहेणं-तीन प्रकार के करणजोएण-करण तथा योग से कभी नहिंसंति-हिंसा नहीं करते। . मूलार्थ-जो विशुद्ध समाधि वाले मुनि हैं, वे मन, वचन और काय रूप तीनों योगों से तथैव कृत, कारित और अनुमोदन रूपतीनों करणों से कभी भी पृथ्वी-कायिक जीवों की हिंसा नहीं करते। टीका-जो श्रेष्ठ साधु सदैव जीवों की यत्ना करने वाले हैं, वे मन, वचन और काय द्वारा कदापि पृथ्वी काय के जीवों की हिंसा नहीं करते / जब, स्वयं नहीं करते हैं तो क्या औरों से करवाएँगे ? वे तो न औरों को हिंसा करने का उपदेश देते हैं और न हिंसा करने वालों की अनुमोदना करते हैं। उनकी दृष्टि में जैसा हिंसा-कृत्य करना बुरा है। वैसा ही दूसरों से करवाना और करते हुए का अनुमोदन करना भी बुरा है। वे तो हिंसा की सभी बुराइयों से सर्वथा अलग रहते हैं। संक्षिप्त सार यह है कि, साधु जो पृथ्वी-कायिक जीवों की हिंसा का परित्याग करता है, करण और तीन योगों से करता है। क्योंकि, तभी वह पृथ्वी-कायिक हिंसा से पूर्ण निवृत्त होता है। जिससे फिर उसकी आत्मा को पूर्ण स्थायी शान्ति मिलती है। उत्थानिका- अब आचार्य, 'पृथ्वी-काय की हिंसा करने से अन्य त्रस-जीवों की भी हिंसा होती है' यह स्फुट रूप से कहते हैं: पुढविकायं . विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए। तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे॥२८॥ पृथिवीकायं विहिंसन्, हिनस्ति तु तदाश्रितान्। त्रसांश्च विविधान् प्राणिनः, चाक्षुषांश्चाचाक्षुषान् // 28 // पदार्थान्वयः- पुढविकायं-पृथ्वी-काय की विहिसंतो-हिंसा करता हुआ मनुष्य तयस्सिए-पृथ्वी-काय के आश्रित तसे-त्रस जीवों की अ-तथा विविहेपाणे-नाना प्रकार के स्थावर जीवों की तथा चक्खुसे-चक्षुओं द्वारा देखे जाने वाले, चाक्षुष-जीवों की अ-तथा अचक्खुसेचक्षुओं द्वारा नहीं देखे जाने वाले, अचाक्षुष-जीवों की भी हिंसई उ-हिंसा करता है। ... मूलार्थ-पृथ्वी-काय की हिंसा करने वाला केवल पृथ्वी-काय की ही हिंसा नहीं करता, बल्कि तदाश्रित जो नाना प्रकार के त्रस, स्थावर और चाक्षुष, अचाक्षुष प्राणी हैं, उन सभी की हिंसा करता है। टीका-इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि, पृथ्वी-काय की हिंसा करते हुए केवल पृथ्वी-काय के जीवों की ही हिंसा होती है, अन्य जीवों की हिंसा नहीं होती, यह बात नहीं है। क्योंकि, सूत्रकार का मन्तव्य है कि, जब कोई अबोध प्राणी पृथ्वी-काय के जीवों की हिंसा करने लगता है, तब पृथ्वी के आश्रित हो कर जो जीव ठहरे हुए होते हैं; उन सभी जीवों की हिंसा हो जाती है। चाहे वे जीव त्रस हों या स्थावर हों, चाक्षुष हों (आँखों से देखे जाते हों) या अचाक्षुष हों (आँखों से नहीं देखे जाते हों) पृथ्वी के आश्रित होने के कारण षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [237
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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