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________________ विचार बुद्धि से वा नेत्रों से देखकर निग्गंथा-साधु सव्वाहारं-सभी प्रकार का राइभोअणं-रात्रिभोजन न भुंजंति-नहीं भोगते हैं। मूलार्थ- ज्ञात-पुत्र भगवान् महावीर स्वामी के बतलाए हुए पूर्वोक्त रात्रि-भोजन के दोषों को सम्यक्तया जान कर स्व-पर-हिताकांक्षी मुनि, रात्रि में कभी भी किसी प्रकार का भोजन नहीं करते / टीका-इस गाथा में उक्त विषय का उपसंहार किया गया है। जैसे कि, श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने केवल अपने ज्ञान द्वारा रात्रि-भोजन सम्बन्धी आत्म-विराधना और संयम-विराधना रूप अनेक प्रकार के दोषों को देख कर यह प्रतिपादन किया है कि, निर्ग्रन्थों के लिए रात्रि-भोजन सर्वथा त्याज्य है। अस्तु निर्ग्रन्थों ने भी श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के उपदेश से रात्रि-भोजन सम्बन्धी दोषों का परिज्ञान करके आत्म-विराधना एवं संयमविराधना के पाप-पङ्क से पृथक् होने के लिए अशनादि चतुर्विध-आहार का और रात्रि में भोगने का परित्याग किया है। अतएव हे आर्य सज्जनो! अब भी निर्ग्रन्थ-मुनि उक्त दोषों को यथावत् जानकर रात्रि में भोजन नहीं करते हैं / यदि ऐसा कहा जाए कि, हिंसादि के अतिरिक्त कोई अन्य दोष भी रात्रि-भोजन में होता है या नहीं ? तो इस शङ्का के उत्तर में कहा जाता है कि, जब सूत्रकार ने रात्रि-भोजन से संयम-विराधना का होना बतलाया है, तब फिर उसमें सभी दोषों का समावेश अपने आप हो गया। जैसे कि, जब रात्रि में आहार लिया जाएगा तब अन्धकार के हो जाने से विशेष निर्लज्जता बढ़ जाती है जिससे फिर मैथुनादि दोषों का भी प्रसंग उपस्थित हो जाना सम्भव है तथा कभी-कभी स्वकार्य सिद्धि के लिए असत्य का भी / प्रयोग करना पड़ेगा, जिससे फिर अदत्ता-दान और परिग्रह के लिए भी भाव उत्पन्न हो जाएंगे। इस उपर्युक्त रीति से संयम-विराधना में सभी प्रकार के दोषों का समावेश किया जा सकता है। उत्थानिका- अब आचार्य, षव्रत के अनंतर षट्काय का वर्णन करते हुए' प्रथम पृथ्वी-काय का वर्णन करते हैं : पुढविकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेणं करणजोएण, संजया सुसमाहिआ॥२७॥ पृथिवीकायं न हिंसन्ति, मनसा वचसा कायेन। त्रिविधेन करण योगेन, संयताः सुसमाहिताः // 27 // पदार्थान्वयः- सुसमाहिआ-श्रेष्ठ समाधि वाले संजया-साधु पुढविकायं-पृथ्वी १इस सूत्रोक्त 'वयसा' और 'कायसा' शब्द के संस्कृत रूप वचसा' और 'कायेन' होते हैं। अर्द्ध मागधी व्याकरण 'जैन सिद्धान्त कौमुदी' में उक्त सूत्रगत प्राकृत रूपों की सिद्धि इस प्रकार की गई है"सुटचेणस्य 2-1-23 // जसादिभ्यः परस्येण प्रत्यस्य डासादेशः सुडागमश्च-स्यात्। जस+इण-जससा। वयसा। कायसा। तेयसा। चक्खुसा। जोगसा।" अर्थात् जादिशब्दों की तृतीया विभक्ति के इण प्रत्यय के स्थान पर डासा देश और सुट् का आगम होता है। जिससे उक्त रूप सिद्ध होते हैं - लेखक। 236] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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