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________________ आहार तथा महिं-पृथ्वी पर निवड़िया-पड़े हुए पाणा-प्राणी, जब कि साधु दिआ-दिन में ताईउन को विवज्जिजा-वर्जता है तो फिर राओ-रात्रि में तत्थ-उनके विषय में कहं-किस प्रकार चरे-संरक्षण पूर्वक संचरण कर सकता है, कदापि नहीं। मूलार्थ-जब कि पाप-भीरू-साधु , दिन में भी सचित्त जल से आर्द्र और बीजादि से मिश्रित आहार को छोड़ता है तथा पृथ्वी पर जो अनेक प्रकार के सूक्ष्म जीव भ्रमण करते रहते हैं, उनकी रक्षा करता रहता है, तो फिर इसके विरूद्ध रात्रि में कैसे चल सकता है ? कभी नहीं। टीका-इस गाथा में रात्रि-भोजन के विशेष दोष कथन किए गए हैं। यथा-जब साधु दिन में 'जो आहारादि ग्राह्य-पदार्थ, सचित्त जल से स्पर्शित हों तथा बीजादि से संमिश्रित हों' उन्हें कदापि नहीं ले सकता तो फिर रात्रि में उक्त दोषों का निराकरण किस प्रकार किया जा सकेगा ? और जब 'जो मार्ग जल से वा बीजादि से संमिश्रित हुए रहते हैं, जिन मार्गों में बहुत से प्राणी चलते फिरते रहते हैं ऐसे मार्ग दिन में भी वर्जित किए जाते हैं, तो फिर रात्रि में उन मार्गों पर साधु किस प्रकार जा सकता है ? क्योंकि सूर्य के अस्त होते ही विशेष अन्धकार फैलता चला जाता है, जिससे आँखों का विषय (सूक्ष्म जीवों का निरीक्षण) मन्द पड़ जाता है। नेत्र-ज्योति के मन्द हो जाने से आहार-शुद्धि और मार्ग-शुद्धि दोनों ही नहीं हो सकती। अतएव इस सूत्र में रात्रि-भोजन एवं रात्रि-विहार दोनों ही वर्जित किए गए हैं अर्थात्-साधु, जीवों की रक्षा के लि न तो रात्रि में आहार करे और न रात्रि में विहार ही करे। पाठक पछ सकते हैं कि. सूत्र में तो रात्रि-भोजन के निषेध की ही चर्चा की गई है तब रात्रि में भोजन करने का निषेध तो सिद्ध होता है, परन्तु सूत्र में अपठित यह रात्रि में विहार करने का निषेध आप कहाँ से ले आए हैं ? उत्तर में कहना है कि, यह निषेध आकस्मिक नहीं आया है, किन्तु इसी सूत्र से ही आया है। सूत्र में आया हुआ 'महिं'-'मह्यां' शब्द इस रात्रि विहार के निषेध का पूर्ण संसूचक है, क्षण भर ध्यान पूर्वक सूत्र के आन्तरिक-तत्त्व का अवलोकन करें। उत्थानिका- अब आचार्य, 'उपसंहार करते हुए' रात्रि-भोजन का स्पष्ट शब्दों में प्रतिषेध करते हैं: एअंच दोसंदठूणं', नायपुत्तेण भासिअं। सव्वाहारं न भुंजंति, निग्गंथा राइ भोअणं॥२६॥ एतं च दोषं दृष्ट्वा , ज्ञातपुत्रेण भाषितम्। सर्वाहारं न भुञ्जते, निर्ग्रन्था रात्रिभोजनम्॥२६॥ पदार्थान्वयः-नायपुत्तेण-ज्ञातपुत्र श्री वीर प्रभु के भासिअं-बतलाए हुए एअं-इस पूर्वोक्त प्राणि-हिंसा रूप दोषं-दोष को च-तथा च शब्द से आत्म विराधनादि दोष को दट्ठणं-स्वयं १बहुत से अर्थकार सूत्रगत 'दठूणं' शब्द को 'निग्गंथा' शब्द के साथ न जोड़कर नायपुत्तेण' शब्द के साथ जोड़ते हैं और यह अर्थ करते हैं कि, 'पूर्वोक्त दोषों को देखकर श्री वीर भगवान् ने यह प्रतिपादन किया है कि रात्रि-भोजन त्याज्य है' अतः साधुरात्रि-भोजन नहीं करते हैं।' यह अर्थ भी सुघटित है।-सम्पादक। षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [235
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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