________________ टीका-इस गाथा में रात्रि भोजन में प्राणातिपात आदि की संभावना होने से' रात्रिआहार की सदोषता सिद्ध की गई है। जैसे इस पृथ्वी पर त्रस और स्थावर, सूक्ष्म और वादर आदि नाना प्रकार के जीव जन्तु हैं और इन जीवों में बहुत अधिक संख्या में ऐसे जीव हैं जो अपनी सूक्ष्मता के कारण रात्रि में दृष्टि-गोचर नहीं हो सकते अर्थात-आँखों से सम्यक्तया ध्यान देकर देखने पर भी देखे नहीं जाते। फिर जब ये जीव रात्रि में देखे ही नहीं जाते तो साधु किस प्रकार भोजन क्रिया वशीभूत होकर' इनकी रक्षा कर सकेगा? कभी नहीं। जब जीवों की रक्षा ही न हुई तो फिर आहार की निर्दोषता कहाँ ? इस तरह तो आहार की सदोषता अपने आप सिद्ध है। सूत्र का संक्षिप्त तात्पर्य यह है कि, रात्रि में भोजन करते समय में नाना प्रकार के सूक्ष्म जीव आ-आ कर गिरते हैं, जो सब भोजन कर्ता द्वारा 'उदराय स्वाहा' हो जाते हैं। अतः रात्रि-भोजन प्रत्यक्ष हिंसाकारी होने से निर्विवाद सदोष है तथा रात्रि में स्पष्टतया जीवों के न देखने से गवेषणा एवं एषणा की शुद्धि भी नहीं की जा सकती है। अतएव जब आहार की शुद्धि सम्यक्तया न हो सकी तो फिर कर्मबन्ध का हो जाना स्वाभाविक बात है। इस प्रकार ईर्या-समिति और एषणा- . समिति का ठीक तरह से पालन न हो सकने के कारण अहिंसाव्रती मुनि के लिए रात्रि भोजन सर्वथा त्याज्य है। यदि यहाँ यह शङ्का उठाई जाए कि, आधुनिक बिजली आदि प्रकाशक पदार्थों के तीव्र प्रकाश में यदि रात्रि-भोजन कर लिया जाए तो इस में क्या दोष है ? इस शङ्का के उत्तर में कहा जाता है कि, प्रथम तो सूर्य के समान बिजली आदि पदार्थों का प्रकाश होता ही नहीं, जिससे सम्यक्तया सूक्ष्म जीवों का पर्यालोकन हो सके। द्वितीय, वह प्रकाश सब स्थान पर न होने से अज्ञ जनता फिर सर्वत्र ही रात्रि-भोजन की प्रथा बना डालेगी। अभिप्राय यह है कि, चाहे कितनी चतुरता करो, रात्रि-भोजन में सूक्ष्म जीवों की हिंसा हुए बिना रहती ही नहीं। तीसरी बात एक और यह है कि, जब साध रात और दिन में खाता ही रहेगा तो फिर उसका तप कर्म क्या होगा ? क्योंकि तप कर्म तो तपस्या के मार्ग से हो सकता है। यह नहीं हो सकता कि, अन्धाधुन्ध (अपरिछिन्न) दिन-रात पशुवत् चरता भी रहे और साथ ही भिक्षुकोचित महा-तपस्या में भी पूर्ण सफलता प्राप्त कर ले। तब तो दिन हो या रात पेट पूजा करने का और साधु योग्य तप कर्म का मार्ग, पूर्व एवं पश्चिम के समान सर्वथा विभिन्न है। जिस प्रकार रात्रि-भोजन विवर्जित है ठीक इसी प्रकार दिन में भी जो अन्धकार युक्त स्थानों में बैठकर भोजन किया जाता है वह सर्वथा त्याज्य है। क्योंकि, जो दोष रात्रि में लगता है वही यहाँ पर भी लग सकता है। दूषण की दृष्टि से दोनों ही समान हैं, इस में कोई मीन-मेष नहीं लग सकती अर्थात्-इसका कोई भी समाधान नहीं हो सकता है। उत्थानिका- अब फिर इसी विषय पर स्फुटतया प्रकाश डाला जाता है:उदउल्लं बीअसंसत्तं, पाणा निवडिया महिं। दिआ ताई विवजिज्जा, राओ तत्थ कहं चरे॥२५॥ उदका बीजसंसक्तं, प्राणिनः निपतिता महीम्। दिवा तान् विवर्जयेत् , रात्रौ तत्र कथं चरेत्॥२५॥ - पदार्थान्वयः- उदउल्लं-पानी से भीगा हुआ और वीअसंसत्तं-बीजों से मिला हुआ 234] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्