________________ समाधि वाले संयमी, अप्काय के जीवों की मन, वचन और शरीर से तथा कृत, कारित और अनुमोदन से अर्थात् तीनों योगों एवं तीनों करणों से किसी भी अवस्था में हिंसा नहीं करते हैं। कारण यह है कि जब अपनी आत्मा के समान प्रत्येक जीव को जान लिया तो फिर हिंसा किसकी की जाए! इस उक्त कथन से स्पष्ट सिद्ध हआ कि. दया-सागर साधओं को हिंसा के मलिन दोषों से सदैव पृथक् ही रहना चाहिए। हिंसा से पृथक् रहने में ही साधुता और उत्तमता है। उत्थानिका- अब आचार्य, फिर इसी विषय में कहते हैं:आउकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए। तसे अ. विविहेपाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे॥३१॥ अप्कायं विहिंसन् , हिनस्ति तु तदाश्रितान् / सांश्च विविधान् प्राणिनः; चाक्षुषांश्चाचाक्षुषान् // 31 // पदार्थान्वयः- आउकायं-अप्काय के जीवों की विहिंसंतो-हिंसा करता हुआ तयस्सिए-तदाश्रित तसे-त्रस-जीवों की अ-और विविहेपाणे-विविध प्रकार के स्थावर जीवों की चक्खुसे-चाक्षुष जीवों की अ-और अचक्खुसे-अचाक्षुष जीवों की भी हिंसई-हिंसा करता है उ-तु शब्द अवधारण अर्थ का वाचक है। .: मूलार्थ-अप्काय की हिंसा करता हुआ मनुष्य, तदाश्रित विविध प्रकार के त्रस और स्थावर, चाक्षुष और अचाक्षुष जीवों की भी हिंसा करता है। टीका-जब कोई जलकाय की हिंसा करने लगता है, तब जल के आश्रित रहने वाले अनेक प्रकार के त्रस वा स्थावर, सूक्ष्म वा वादर (स्थूल) सभी प्रकार के जीवों की हिंसा हो जाती है। क्योंकि, वे सभी जीव जल के आश्रित होते हैं, जैसे निगोद आदि के जीव। अतः साधु को सर्वदा अपनी क्रिया में सावधानी रखनी चाहिए, ताकि उन जीवों की यथावत यत्ना हो सके। * * उत्थानिक- अब आचार्य, उक्त विषय का उपसंहार करते हैं:तम्हा एअं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं। आउकायसमारंभं , जावजीवाइं वजए॥३२॥ तस्माद् एतं विज्ञाय, दोषं दुर्गतिवर्द्धनम्। . अप्कायसमारम्भं , यावज्जीवं वर्जयेत्॥३२॥ पदार्थान्वयः-तम्हा-इसलिए एअं-इस दुग्गइवड्ढणं-दुर्गति के बढ़ाने वाले दोसंदोष को वियाणित्ता-जान कर आउकायसमारंभं-अप्काय के समारम्भ को जावजीवाइंयावज्जीवन के लिए वज्जए-वर्ज दे। मूलार्थ-इस लिए इस दुर्गति-वर्द्धक-महादोष को भली भाँति जान कर, साधु को षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [239