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________________ पदार्थान्वयः- ताइणा-जीवों की रक्षा करने वाले नायपुत्तेण-ज्ञात-पुत्र भगवान् महावीर स्वामी ने सो-इस वस्त्र पात्रादि को परिग्गहो-परिग्रह न वुत्तो-नहीं बतलाया है, किन्तु मुच्छा परिग्गहो-मूर्छा भाव को परिग्रह वुत्तो-बतलाया है इअ-ऐसा महेसिणा-पूर्व महर्षि गणधरदेवने वुत्तं-कहा है। * मूलार्थ-जगज्जीवों की रक्षा करने वाले श्री श्रमण भगवान् महावीर ने वस्त्र पात्रादि उपकरणों को परिग्रह नहीं बतलाया है। किन्तु मूर्छा-भाव को ही परिग्रह बतलाया है। इन्हीं भगवान् महावीर के प्रवचनों को अवधारण कर महर्षि गणधरादि ने भी मूर्छाभाव को ही परिग्रह माना है। ___टीका-इस गाथा में परिग्रह शब्द की व्याख्या की गई है। जैसे कि, स्व-परसमुद्धारक श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सभी उपकरण मात्र को परिग्रह नहीं कथन किया है, क्योंकि उपकरण मात्र से ही कोई कर्म बंधन नहीं होता है। भगवान् ने तो जो कर्मबन्ध का कारण मूर्छा भाव (ममत्व भाव) है उसी को परिग्रह माना है। उन्हीं वीर प्रभु से इस अर्थ को अवधारण कर श्री गणधर-देवों ने भी मूर्छा-भाव को ही परिग्रह माना है। क्योंकि, इस गाथा में जो तृतीयान्त पद"महेसिणा' दिया हुआ है, उसका सम्बन्ध गणधर-देवों के साथ ही सिद्ध होता है अर्थात्-जो पूर्व महर्षि गणधर-देव हुए हैं उन्होंने भी वीर प्रवचनानुसार कर्मबन्ध का कारण होने से ममत्व-भाव को ही परिग्रह माना है, संयम की रक्षा करने वाले वस्त्रादि उपकरणों को नहीं तथा मूल सूत्र में जो 'नायपुत्तेण' और 'ताइणा' पद दिए हैं उन का यह भाव है कि 'ज्ञात उदार-क्षत्रियः सिद्धार्थस्तत्पुत्रेण वर्द्धमानेन'-'त्रायिना स्वपरपरित्राणसमर्थेन' अर्थात्प्रधान क्षत्रिय सिद्धार्थ राजा के पुत्र और स्व तथा पर के परित्राण करने में समर्थ भगवान् महावीर ने ऐसा प्रतिपादन किया है। योग्य प्रतिपादक का वचन ही वस्तुतः प्रतिपाद्य हो सकता है, अन्य का नहीं। ज्ञात पुत्र' शब्द में 'ज्ञात' पद उदार क्षत्रिय का वाचक न कि 'ज्ञात' नामक वंश का। उत्थानिका- अब उक्त विषय पर उपसंहार किया जाता है:सव्वत्थु वहिणा बुद्धा, संरक्खण परिग्गहे। अवि अप्पणोवि देहमि, नायरंति ममाइयं॥२२॥ सर्वत्रोपधिना. बुद्धाः, संरक्षण परिग्रहे। अप्यात्मनोऽपि देहे, नाचरन्ति ममत्वम्॥२२॥ __ पदार्थान्वयः- बुद्धा-तत्त्व के जानने वाले सव्वत्थुवहिणा-सब प्रकार की उपधि द्वारा संरक्खण परिग्गहे-षट्-काय के जीवों की रक्षा के लिए जो उपधि परिगृहीत है, उसके विषय में अवि-तथा अप्पणोवि-अपनी देहंमि-देह के विषय में भी ममाइयं-ममता-भाव नायरंतिआचरण नहीं करते। मूलार्थ-जो सैद्धान्तिक तत्त्व के पूर्ण ज्ञाता मुनि हैं, वे षट्-जीव-कायों के 1. वस्तुतः 'ज्ञात' यह राजा सिद्धार्थ के वंश का नाम था। इसीलिए भगवान महावीर स्वामी 'ज्ञातपुत्र' के नाम से सम्बोधित किए जाते थे। जिस वन में भगवान महावीर ने दीक्षा ली है उस का नाम कल्प सूत्र में 'ज्ञात बनखण्ड' लिखा है, यह ज्ञात वंश की पूर्ण रूप से सिद्धि करता है।-संपादक षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [231
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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