________________ उपकरण रात्रि में रखते हैं वह संनिधि नहीं है ?' इस शङ्का के समाधान में कहते हैं: जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं। तंपि संजमलजट्ठा, धारंति परिहरंति अ॥२०॥ यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा, कम्बलं पादप्रोंच्छनम्। तदपि संयमलज्जार्थं, धारयन्ति परिहरन्ति च // 20 // पदार्थान्वयः-जंपि-यद्यपि साधुवत्थं-वस्त्र व-अथवा पायं-पात्र वा-अथवा कंबलंकम्बल तथा पायपुछणं-रजोहरण रखते हैं तंपि-तदपि वे संजम-लज्जट्ठा-संयम की लज्जा के लिए ही धारंति-धारण करते हैं च-और परिहरंति-अपने परिभोग में लाते हैं। मूलार्थ-मोक्षसाधक साधु जो कल्पनीय वस्त्र, पात्र, कम्बल तथा रजोहरण आदि आवश्यक वस्तुएँ रखते हैं, वे संयम की लज्जा के लिए ही रखते हैं और अपने उपभोग में लाते हैं, ममत्वभाव के लिए नहीं। टीका-इस गाथा में शङ्का-समाधान किया गया है। शिष्य प्रश्न करता है कि, हे भगवन् ! जब आप संनिधि का अर्थ, पदार्थों का रात्रि में रखना करते हैं, तो क्या फिर जो साधु वस्त्र, कम्बल रजोहरणादि अनेक प्रकार के उपकरण रात्रि में रखते हैं वे भी साधु नहीं हैं ? इस शङ्का के उत्तर में आचार्य महाराज कहते हैं कि, हे शिष्य ! जो साधु वस्त्र, पात्र, आदि उपकरण रखते हैं वे संयम और लज्जा केपालन के वास्ते ही रखते हैं, ममत्व-भाव के लिए नहीं। जैसे कि. साध स्वयं पात्र न रखकर जब गृहस्थ के भाजन में खाने लग जाएगा, तब भाजन को सचित्त जल से धोने के कारण संयम विराधना अवश्य होगी तथा जब सर्वथा वस्त्र आदि को छोड़ देगा तब समय-अनुकूल न होने से स्त्रियों के देखने पर कामादि विकार उत्पन्न हो जाएँगे तथा कदाचित् अङ्ग स्फुरणादि से निर्लजता पराकाष्ठा तक पहुँच जाएगी। अतएव संयम और लज्जा के रखने के लिए ही मुनि वस्त्र पात्रादि धारण करते हैं, न कि ममत्व भाव के वशवर्ती होकर। इसी प्रकार ज्ञानादि के साधन पुस्तकादि के विषय में भी जान लेना चाहिए। यदि ऐसा कहा जाए कि, जब 'वस्त्र' यह समुच्चय पद एक बार दे दिया है तो फिर द्वितीय बार 'कंबल' शब्द क्यों दिया ? क्या कंबल-शब्द वस्त्र शब्द के अन्तर्गत नहीं किया जा सकता? इस के उत्तर में कहना है कि, वस्त्र शब्द से सामान्यतया चोल-पट्टक आदि वस्त्र का ग्रहण है और कम्बल शब्द से विशेषतया वर्षा कल्पादि योग्य प्रधान-वस्त्र का ग्रहण है। अत: वस्त्र-सम्बन्धी प्रधानता और अप्रधानता के भेद को बतलाने के लिए ही सूत्रकार ने वस्त्र शब्द को अलग स्थान दिया है। उत्थानिका-यदि पूर्वोक्त समाधान ठीक है तो फिर परिग्रह किसे मानना चाहिए ? इसका समाधान करते हुए सूत्रकार कथन करते हैं: न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इअवुत्तं महेसिणा॥२१॥ नासौ परिग्रह उक्तः, ज्ञातपुत्रेण त्रायिना (जात्रा)। . मूर्छा परिग्रह उक्तः इत्युक्तं महर्षिणा // 21 // 230] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्