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________________ निश्चित संभावना है तथा किन्हीं सज्जनों की यह मान्यता है कि, 'बिड़' शब्द प्रासुक लवण का और 'उद्भेद्य' शब्द अप्रासुक लवण का वाचक है। अतः यहाँ दोनों ही ग्रहण करने चाहिए। इनके कथन का सारांश यह है कि, साधु रात्रि में प्रासुक या अप्रासुक दोनों ही प्रकार के पदार्थों में से किसी भी पदार्थ को न रक्खे। उत्थानिका- अब सूत्रकार, संनिधि के दोष दिखलाते हैं:लोहस्सेसअणुफासे , मन्ने अन्नयरामवि। जे सिया सन्निहिं कामे, गिही पव्वइए न से॥१९॥ लोभस्यैषोऽनुस्पर्शः , मन्यन्ते अन्यतरामपि। यः स्यात् संनिधिं कामयते, गृही प्रव्रजितो न सः॥१९॥ पदार्थान्वयः- एस-यह संनिधि, चारित्र-विघ्नकारी पञ्चम कषाय लोहस्स-लोभ का ही अणुफासे-अनुस्पर्श हैं (महिमा है) अत: मन्न-तीर्थंकर देव आदि मानते हैं कि जे-जो साधु अन्नयरामवि-स्तोक मात्र भी संनिहिं-रात्रि में भोज्य वस्तु रखने की सिया-कदाचित् कामेकामना करता है, तो से-वह साधु गिही-गृहस्थ है न पव्वइए-प्रव्रजित (साधु) नहीं। मलार्थ- यह लोभ का ही माहात्म्य है जो साध-पद लेकर भी गहस्थो-चित संनिधि का दोष लगाता है। अतएव धर्म-प्ररूपक-तीर्थंकर देवों का कहना है कि जो साधु ,अणुमात्र भी रात्रि में संनिधि रखता है उसे गृहस्थ ही समझना चाहिए, साधु नहीं। टीका-इस गाथा में संनिधि रखने के दोष प्रतिपादित किए हैं। जैसे कि, जो साधु साधुवृत्ति लेकर भी रात्रि में घृतादि पदार्थों के रखने की इच्छा करता है वह सब लोभ का ही माहात्म्य जानना चाहिए / कारण यह है कि, यह लोभ चारित्र में विघ्न करने वाला है। इसीलिए तीर्थंकर देव वा गणधर-देव आदि महापुरुष यह मानते हैं कि, जो साधु रात्रि में स्तोक-मात्र भी घृतादि पदार्थ रखने की इच्छा करता है वह वास्तविक साधु नहीं है / उसे साधु के वेश में गृहस्थ ही समझना चाहिए। स्पष्ट शब्दों में यह भाव है कि संनिधि का मूल कारण लोभ है और जहाँ लोभ है वहाँ साधुता नहीं एवं जहाँ साधुता है वहाँ लोभ नहीं। इन दोनों का पारस्परिक विरोध दिन और रात के समान है और 'जहाँ लोभ है वहीं दुर्गति है' यह निश्चित सिद्धान्त है। अत:संनिधि रखने वाला साधु , साधु नहीं है। वह गृहस्थ के नियम से दुर्गति का भागी होता है। संनिधि-प्रेमी- (लोभी.) साधु की 'दुर्गति गमन से' साधुता का खण्डन करते हुए टीकाकार भी लिखते हैं- 'संनिधीयते नरकादिष्वात्माऽनयेति संनिधिरिति, प्रव्रजितस्य च दुर्गति-गमनाभावात्' जिसके द्वारा आत्मा नरकादि दुर्गतियों में स्थापित किया जाए उसको संनिधि कहते हैं और प्रव्रजित आत्मा दुर्गति में जाने योग्य नहीं माना जाता, इसलिए संनिधि-कारक आत्मा वास्तव में साधु नहीं है। सूत्र में जो 'मन्ने'-'मन्ये' एक वचनान्त क्रिया पद दिया है वह मन्यन्ते' बहुवचन के स्थान पर दिया है। यह वचन व्यत्यय, प्राकृत शैली से सम्मत है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, 'यदि ऐसा है, तो क्या फिर जो साधु वस्त्र पात्र आदि 1 यह मान्यता ठीक नहीं जंचती। क्या साधु अप्रासुक पदार्थ रात्रि में नहीं रक्खे तो दिन में रखले? नहीं कभी नहीं। अप्रासुक पदार्थ तो छूना ही नहीं, फिर दिन में या रात में रखने की क्या बात है- संपादक षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [229
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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