________________ रक्षार्थ परिगृहीत उपधि के विषय में एवं अपने शरीर के विषय में, किसी प्रकार का ममत्व-भाव नहीं करते। टीका-इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि वास्तव में ममत्व भाव ही परिग्रह है। जैसा कि, शिष्य ने प्रश्न किया कि हे भगवन् ! जब वस्त्रादि के अभाव में भी मूर्छा हो जाया करती है तो फिर वस्त्रादि के पास रहने पर मूर्छा क्यों न उत्पन्न होगी ? इस शङ्का के समाधान में गुरु श्री कहते हैं कि, हे शिष्य ! जो-जो उपधियाँ साधु रखते हैं, वे केवल षट्काय-जीवों की रक्षा के लिए ही रखते हैं। अतः वस्त्रादि के होने पर भी वे वस्त्रादि पर ममत्व भाव नहीं करते / कारण कि, वे तत्त्व के जानने वाले जो धर्म कृत्यों में परम सहायक अपना शरीर है, उस पर भी जब ममत्व-भाव नहीं करते तो फिर वस्त्रादि पर तो कैसे कर सकते हैं। सूत्रकार का स्पष्ट आशय यह है कि, साधुओं की जो भी उपधियाँ हैं वे सब की सब जीवों की रक्षा के लिए ही हैं, ममत्व-भाव के लिए नहीं। अतएव स्व-कर्त्तव्य का सम्यग-बोध हो जाने से वे उपधियाँ शरीर के समान अपरिग्रह में ही प्रविष्ट हैं, परिग्रह में नहीं। यदि केवल वस्त्रादि को ही परिग्रह माना जाए तब तो फिर स्थानाङ्ग सूत्र के एक पाठ में बाधा उपस्थित होगी। स्थानाङ्ग सूत्र में शरीर, कर्म और बाह्य भण्डोपकरण इन तीनों को भी परिग्रह माना है। तो फिर पंचम महाव्रत किस प्रकार धारण किया जा सकेगा; क्योंकि जीव से शरीर और कर्म, किस प्रकार पृथक् किए जा सकते हैं। उन के पृथक् करने के लिए तो सर्व-वृत्ति (साधु-वृत्ति) ही धारण की जाती है। अत-एव सिद्ध हुआ कि, वास्तव में मूर्छा-भाव को ही परिग्रह मानना उचित है। मूर्छा-भाव (ममत्व-भाव ) से रहित होकर ही साधु को धर्मोपकरण धारण करने चाहिए जिससे साधु को परिग्रह का दोष न लगे। यदि यहाँ ऐसा कहा जाए कि जब मूर्छा-भाव ही परिग्रह है तो फिर सुवर्णादि के पास रख लेने में क्या बांधा है ? पास रखने वाला उत्तर दे सकता है मेरा इस पर मूर्छा-भाव अणुमात्र भी नहीं है। इस शङ्का के उत्तर में कहा जाता है कि यह हेतु वस्तुतः हेतु नहीं, किन्तु हेत्वाभास है। साधु के उपकरण तो धर्म के साधन हैं, वे केवल षट्-काय के जीवों की रक्षा के वास्ते ही रक्खे जाते हैं। अवशिष्ट सुवर्णादि पदार्थ तो स्पष्टतः भोग के साधन हैं। इसलिए वे उपकरण की भाँति कभी भी नहीं हो सकते। पंचम महाव्रत में सुवर्ण आदि का ही त्याग किया जाता है, उपकरणों का नहीं। सुवर्ण आदि का अधिक काल तक पास रखना तो क्या ? इस का तो क्षण मात्र संसर्ग भी महा अनर्थकारी है। एक कवि ने ठीक कहा है-'कनक कनक ते सौगनी मादकता अधिकाय। वो खोय बौरात जग वो पाये वौराय'। उत्थानिका- अब आचार्य, क्रमागत षष्ठ स्थान के विषय में कहते हैं:अहो निच्चं तवोकम्मं, सव्वबुद्धेहिं बन्नि। जाय लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं च भोअणं॥२३॥ अहो नित्यं तपःकर्म, सर्वबुद्धै वर्णितम्। या च लज्जासमा वृत्तिः, एकभक्तं च भोजनम्॥२३॥ . ___ पदार्थान्वयः- अहो-आश्चर्य है कि सव्वबुद्धेहि-सर्व तत्व-वेत्ता तीर्थंकर देवों ने साधुओं के लिए निच्चं-नित्य ही तवोकम्म-तप कर्म बन्नियं-वर्णन किया है जाय-जो वित्ती-देह 232] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्