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________________ उत्थानिका- अब आचार्य, तृतीय स्थान के विषय में कहते हैंचित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं। दंतसोहणमित्तं वि, उग्गहंसि अजाइया // 14 // तं अप्पणा न गिण्हंति, नो वि गिण्हावए परं। अन्नं वा गिण्हमाणं वि, नाणुजाणंति संजया॥१५॥युग्मम् चित्तवद् अचित्तं वा, अल्पं वा यदि वा बहु। दन्तशोधनमात्रमपि , अवग्रहे अयाचित्वा॥१४॥ तदात्मना न गृह्णन्ति, नाऽपि ग्राहयन्ति परम् / .. अन्यं वा गृह्णन्तमपि, नानुजानन्ति संयताः॥१५॥ पदार्थान्वयः- चित्तमंतं-सचेतन पदार्थ वा-अथवा अचित्तं-अचेतन पदार्थ अप्पं वा-अल्प मूल्यवान् , जइ वा-अथवा बहुं-बहुमूल्यवान् पदार्थ, अधिक क्या दंतसोहणमित्तंविदन्त शोधन मात्र-दाँत कुरेदने के लिए एक तृण भी उग्गहंसि-जिस गृहस्थ के अवग्रह में अर्थात् अधिकार में हो अजाइया-उस से बिना माँगे संजया-साधु तं-उक्त अदत्त पदार्थों को न-न तो अप्पणा-आप स्वयं गिण्हंति-ग्रहण करते हैं और नोवि-नी ही परं-दूसरे से गिण्हावए-ग्रहण करवाते हैं वा-तथा अन्नं-अन्य को गिण्हमाणं-ग्रहण करते हुए को नाणुजाणंति-अच्छा भी नहीं जानते हैं वि-यह अपि शब्द यहाँ समुच्चय अर्थ के द्योतनार्थ है। मूलार्थ-संयमी साधु सचेतन पदार्थ वा अचेतन पदार्थ, अल्प मूल्य पदार्थ वा बहुमूल्य पदार्थ और तो क्या दन्त शोधन मात्र तृण आदि नगण्य पदार्थ भी जिस गृहस्थ के अधिकार में हों उसकी आज्ञा लिए बिना उस अदत्त पदार्थकोन तो स्वयं ग्रहण करते हैं, न दूसरों से करवाते हैं और ना ही ग्रहण करते हुए दूसरों को अच्छा समझते हैं। टीका-इस गाथा में यह वर्णन है कि द्विपद-शिष्य आदि चेतन पदार्थ वस्त्र पात्रादि अचेतन पदार्थ, मूल्य से या प्रमाण से अल्प पदार्थ, मूल्य से या प्रमाण से बहु पदार्थ, इतना ही नहीं, किन्तु दन्त-शोधन के काम में आने वाला तृण आदि नगण्य-पदार्थ भी तत् तत् स्वामी की आज्ञा लिए बिना साधु कदापि ग्रहण न करे। दूसरों को लेने के लिए उपदेश भी न दे। यदि कोई स्वयं ही ले रहा हो तो उस के इस कार्य को अच्छा समझ कर अनुमोदन भी न करे। क्योंकि, जो वस्तु जिसके अधिकार में है उस वस्तु को उसकी आज्ञा के बिना लेना, चोरी में प्रविष्ट है। साधु, जब साधु-व्रत लेता है, तब तीन करण (कृत-कारत-अनुमोदित) और तीन योग (मन, वचन, काय) से चौर्य कर्म का प्रत्याख्यान कर पूर्ण अस्तेय व्रत धारण करता है। अतः वह अदत्त-वस्तु को किस प्रकार ले सकता है। साधु का तो यही धर्म है कि उसे जिस वस्तु की आवश्यकता हो उसको वस्तु के स्वामी से माँग कर ही ले। बिना माँगे-वस्तु के स्पर्श को ऐसा समझे जैसा कि जीवनाकाँक्षी लोग अग्नि और विष के स्पर्श को समझते हैं। सच्चा साधु वही है 226] दशवैकालिकसूत्रम् '[षष्ठाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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