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________________ जो कण्ठ-गत प्राण होने पर भी कभी अदत्त-वस्तु के लेने को अपना पवित्र हाथ नहीं बढ़ाता उत्थानिका- अब आचार्य चतुर्थ स्थान के विषय में कहते हैं:अबंभचरिअं घोरं, पमायं दुरहिट्ठि। नायरंति मुणी लोए, भेआययण वज्जिणो॥१६॥ अब्रह्मचर्यं घोरं, प्रमादं दुरधिष्ठितम्। नाचरन्ति मुनयो लोके, भेदायतनवर्जिनः // 16 // पदार्थान्वयः- जो भेआययण वजिणो-भेदस्थानक-वर्जी पाप-भीरू मुणी-मुनि हैं, वे लोए-लोक में अर्थात् संसार में रहते हुए भी दुरहिट्ठिअं-दुःसेव्य तथा पमाय-प्रमाद भूत घोरं-रौद्र अबंभचरिअं-अब्रह्मचर्य का नायरंति-कदापि आचरण नहीं करते। मूलार्थ-जो मुनि स्वीकृत-संयम के भेद कारक स्थानों के त्यागी हैं, वे संसार में रहते हुए भी 'जो अनन्त-संसार-वर्द्धक होने से दुःसेव्य है, जो प्रमाद का मूल कारण है, जो नरक आदि रौद्र गतियों में ले जाने वाला है, ऐसे' अब्रह्मचर्य का कभी सेवन नहीं करते। ... टीका-जो संसार में रहते हुए भी स्व-स्वरूप में सम्प्रविष्ट होकर अपने और दूसरे को तारने के लिए निरन्तर प्रयत्न किया करते हैं, जो 'जिन' वचनों के द्वारा संसार के भीतरी दुःस्वरूप को जानते हैं तथा संसार के दुःखों से छुटकारा पाने के लिए मोक्ष-पथ पर शीघ्र गति से दौड़े-चले जाते हैं, वे पाप-भीरू दोष-त्यागी महामुनि, कदापि अब्रह्मचर्य से अपनी पवित्र आत्मा को अपवित्र नहीं करते। क्योंकि, अब्रह्मचर्य के समान भयंकर-पाप संसार में दूसरा कोई नहीं है। संसार के पाप अकेले अब्रह्मचर्य से हो सकते हैं। खून की नदी बहाने वाली संसार की बड़ी से बड़ी लड़ाइयाँ भी अधिकतर इसी पापी अब्रह्मचर्य के कारण हुई हैं। इसी लिए सूत्रकार कहते हैं, यह अब्रह्मचर्य अपने आक्रमण से संयम दर्ग को खण्ड-खण्ड करके रौद्र से रौद्र गतियों की.द:ख कारिका यात्रा कराने वाला है। अनेक जन्मों को देता हआ संसार अटवी से उधर गेंद की तरह ठुकराने और सभी प्रमादों को पैदा करने वाला है। अतः कल्याण की कामना करने वाले मुनियों का कर्तव्य है कि, वे इसका और तो क्या, स्वप्न में भी ध्यान न लाएँ। उत्थानिका- अब आचार्य, फिर इसी 'अब्रह्मचर्य' के दोषों का वर्णन करते हैं:मूलमेयमहमस्स , महादोससमुस्सयं / तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा वज्जयंति णं॥१७॥ मूलमेतद् अधर्मस्य, महादोष समुच्छ्रयम्। तस्मात् मैथुन संसर्ग, निर्ग्रन्था वर्जयन्ति (णम्)॥१७॥ पदार्थान्वयः- यह अब्रह्मचर्य अहमस्स-अधर्म का मूलं-मूल है तथा महादोस समुस्सयं-महादोषों का समूह है तम्हा-इसी लिए निग्गंथा-निर्ग्रन्थ एयं-इस मेहुणसंसग्गं-मैथुन षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [227
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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