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________________ कथन (बोल) कर मृग के प्राण बचा दिए। इस शङ्का के उत्तर में कहा जाता है कि, साधु-वृत्ति में रहने वाले महानुभाव, किसी भी दशा में किसी भी प्रकार से असत्य भाषण नहीं करते। वे सत्य से जन्य अनर्थ की आशङ्का से समयोचित मौनावलम्बी तो अवश्य हो जाते हैं, परन्तु असत्य भाषण नहीं करते। क्योंकि वे अहिंसा और सत्य दोनों के ही पालक होते हैं। अतः वे इस प्रकार के अवसरों पर मध्यस्थ भाव का अवलम्बन कर अपने ग्रहण किए हुए दोनों नियमों को ही शुद्धतया पालन करते हैं। .. उत्थानिका- अब आचार्य, असत्य के दोष प्रकट करते हुए यह कथन करते हैं:मुसावाओ उ लोगम्मि, सव्व साहूहिं गरिहिओ। अविस्सासो अ भूआणं, तम्हा मोसं विवज्जए॥१३॥ मृषावादश्च लोके, सर्वसाधुभिर्गर्हितः / अविश्वासश्च . भूतानां, तस्मात् मृषां विवर्जयेत्॥१३॥ पदार्थान्वयः-मुसावाओ उ-मृषावाद लोगम्मि-लोक में सव्व साहूहि-सब साधुओं के द्वारा गरिहिओ-गर्हित है अ-तथा मृषावादी भूआणं-प्राणिमात्र का अविस्सासो-अविश्वसनीय है तम्हा-इस लिए साधु को उचित है कि, वह मोसं-मृषावाद को विवज्जए-पूर्ण रूप से छोड़ दे। मूलार्थ-संसार के सभी साधु पुरुष, असत्य-भाषण की निंदा करते हैं और असत्य भाषी मनुष्य का कोई भी प्राणी विश्वास नहीं करता / अतः साधु को असत्य भाषण का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए। टीका-इस गाथा में असत्य के दोष दिखलाए गए हैं। यथा- प्रथम तो असत्य भाषण का सब से बड़ा दोष यह है कि, यह असत्य संसार के सभी साधु पुरुषों द्वारा निन्दित है। किसी भी सभ्य पुरुष ने इसको अच्छा नहीं बतलाया। जिन्होंने असत्य के विषय में कुछ कहा है, उन्होंने बस निन्दा रुप में इसे बुरा ही कहा है और जिस को सभ्य-पुरुष बुरा बतलाते हैं वह किसी भी दशा में अच्छा नहीं हो सकता। सत्यपुरुषों के वचन युक्तियुक्त, सुसंगत एवं अनुभव सिद्ध होते हैं, अतः सत्यपुरूषों के वचनों में अप्रामाणिकता की आशङ्का कभी नहीं की जा सकती। दूसरा असत्यभाषण का यह दोष है कि, असत्य-वादी मनुष्य का संसार में कोई विश्वास नहीं करता। सभी उसको और उसकी बातों को घृणा और शङ्का की दृष्टि से देखने लग जाते हैं। यदि कभी वह प्रसंगोपात सत्य बात बोलता भी है तो भी लोग उसकी बात को सर्वथा असत्य ही मानते हैं। सत्य मानें भी कैसे ? बात मानना तो विश्वास के ऊपर निर्भर है। जिसने अपने विश्वास का परित्याग कर दिया उसने सब कुछ का परित्याग कर दिया। अविश्वसनीयमनुष्य के पास केवल अविश्वास के, अविश्वास से उत्पन्न होने वाले कष्टों के अलावा और रहता ही क्या है ? अविश्वासी मनुष्य की जीवन-नैया संकटों के तूफानी भँवरों में हमेशा डगमगाती रहती है, कुछ पता नहीं कब डूब जाए। उपर्युक्त दोनों दोषों के उल्लेख से सिद्ध होता है कि, असत्य सभी तरह से प्रतिष्ठा का नाश करने वाला है। अतः संसार में प्रतिष्ठा पूर्वक जीवन व्यतीत करना ही जिनके जीवन का एक मुख्योद्देश्य है, ऐसे साधु-पुरुषों को तो असत्य का सर्वथा परित्याग करना ही श्रेयस्कर है। षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [225
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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