SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कारित किए जाने पर भी अपने स्वभाव का परित्याग नहीं करता तो फिर हिंसा अपने स्वभाव का परित्याग किस प्रकार कर सकती है। हिंसा हिंसा ही रहेगी चाहे वह कैसी ही क्यों न हो। हिंसादि-क्रियाएँ किसी भी समय शुभ-फल-प्रद नहीं हो सकती हैं। इसी लिए श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने प्राणिवध को रौद्र फल का देने वाला जान कर इसके आसेवन का निषेध किया है और इसके स्थान पर अहिंसा भगवती को स्थान दिया है अर्थात् अहिंसा भगवती का प्राणी मात्र के लिए उपदेश किया जो उन सब के लिए उपादेय है। उत्थानिका- अब आचार्य, द्वितीय स्थानक के विषय में कहते हैं:अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया। हिंसगं न मुसंवूआ, नोवि अन्नं वयावए॥१२॥ आत्मार्थं परार्थं वा, क्रोधाद्वा यदि वा भयात्। हिंसकं न मृषा ब्रूयात्, नाप्यन्यं वादयेत्॥१२॥ पदार्थान्वयः-साधु अप्पणट्ठा-अपने वास्ते वा-अथवा परट्ठा-पर के वास्ते कोहाक्रोध से वा-मान, माया और लोभ से जइवा-अथवा भया-भय से हिंसगं-पर-पीड़ा कारक मुसंमृषा-वाद न वूआ-स्वयं न बोले तथा अन्नवि-औरों से भी नो वयावए-न बुलवाए। ... मूलार्थ-क्रोध, मान, माया, लोभ तथा भय के कारण से अपने लिए तथा दूसरों के लिए साधु, न तो स्वयं मृषा भाषण करे और न दूसरों से करवाए। टीका-यदि सच्चा साधु बनना है तो क्या अपने लिए, क्या दूसरों के लिए, कभी असत्य नहीं बोलना चाहिए अर्थात् अपने आप असत्य न बोलकर दूसरों से भी नहीं बुलवाना चाहिए और न बोलने वालों का अनुमोदन करना चाहिए। असत्य, आत्मा के पतन का मूल कारण है, क्योंकि जितने भी असत्य हैं, वे सब के सब स्वपरपीड़ोत्पादक होने से हिंसक हैं। अतः आत्मोन्नति के अभिलाषी मोक्ष-मार्ग के अनथक-पथिक-साधुओं का परम कर्त्तव्य है कि, वे असत्य का सर्वथा परित्याग करके सत्य का आश्रय लें। बिना 'सत्य के सत्य लोक में जाकर सदा के लिए सत्य, स्थिर नहीं हो सकता है, अर्थात्-वह सत्यवादी सत्यस्वरूप नहीं हो सकता। भगवान् महावीर के तं सच्चं भगवं' के प्रवचनानुसार सत्य 'भगवान्' है। अतः सत्य भगवान् के जो सच्चे उपासक (भक्त) होते हैं वे भी एक दिन भगवान् हो ही जाते हैं। इस में संदेह को अणु-मात्र भी स्थान नहीं है। परन्तु असत्य का परित्याग करते समय इस बात का अवश्य ज्ञान कर लेना चाहिए कि, असत्य भाषण किन-किन कारणों से किया जाता है। बिना कारणों को जाने असत्य परित्याग का पूर्णतया पालन नहीं हो सकता। अतः सूत्रकार ने स्वयं ही जिज्ञासुओं के लिए असत्य भाषण के कारण बतला दिए हैं:-साधु क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, भय से, लज्जा से, परिहास से, कार्य की शक्ति होते हुए भी-'मेरा तो सिर द:ख रहा है, 'मैं तो बीमार हैं।"मझ से काम कैसे हो सकता है?' इत्यादि असत्यरूप भाषण कदापि न करे। यदि ऐसा कहा जाए कि, जिस असत्य भाषण से किसी अन्य जीव की रक्षा होती हो तो उस असत्य के बोलने में कोई दोष नहीं है, जैसे कि व्याध और मृग के दृष्टान्त में किसी ने असत्य 224] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy