________________ त्रस-स्थावर प्राणी हैं, उन सभी की अपने प्रयोजन के लिए या प्रमाद आदि के वशीभूत होकर स्वयं हिंसा मत करो और न दूसरों से करवाओ तथा जो हिंसादि-क्रियाएँ करते हैं, उनकी अनुमोदना भी मत करो। क्योंकि जब मन, वचन और काय तथा कृत, कारित और अनुमोदित द्वारा हिंसा का सर्वथा परित्याग किया जाएगा तभी आत्मा इस व्रत का सुख पूर्वक पूर्ण पालन कर सकेगी। उत्थानिका- अब सूत्रकार, 'हिंसा क्यों नहीं करनी चाहिए' ? इस शङ्का के समाधान में कहते हैं सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिज्जिउं। तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं॥११॥ सर्वे जीवा अपि इच्छन्ति, जीवितुं न मर्तुम्। तस्मात् प्राणिवधं घोरं, निर्ग्रन्थाः वर्जयन्ति (णम्)॥११॥ पदार्थान्वयः- सव्वेवि-सभी जीवा-जीव जीविउं-जीने की इच्छंति- इच्छा करते हैं परन्तु न मरिज्जिउं-मरने की कोई इच्छा नहीं करते तम्हा-इसी लिए निग्गंथा-निर्ग्रन्थ-साधु घोरं-घोर (भयंकर) पाणिवहं-प्राणि वध को वजयंति-छोड़ देते हैं णं-यह शब्द वाक्यालङ्कार अर्थ में है। मूलार्थ-संसार के दःखी से दःखी और सखी से सखी, सभी जीव सर्व प्रथम जीना ही चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। इसी तत्त्व को लेकर दयालु-मुनि, भयंकरदुःखोत्पादक प्राणिवध का पूर्णतया परित्याग करते हैं। टीका-यह संसार है। इस में सभी स्थिति (प्रकार) के प्राणी विद्यमान हैं। कोई दुःखी है तो कोई सुखी है, परन्तु एक बात यह अवश्य है कि, जीव दुःखी से दुःखी और सुखी से सुखी चाहे कैसी ही अवस्था में हो, अपनी-अपनी योनि में सब प्रसन्न हैं, जीवित रहने से कोई दुखी नहीं है। जो सुखी है उनका तो कहना ही क्या है ? वे तो भला मरना क्यों चाहेंगे ? पाठक किसी ऐसे दुःखित प्राणी को लें, जिस को समझें कि यह तो बस जीने की बिल्कुल इच्छा नहीं करता होगा। लेकिन ध्यान पूर्वक देखा जाए तो वह भी वस्तुतः जीने की ही इच्छा करता दिखाई देगा, मरने की नहीं। भले ही वह ऊपर से दिखावटी फटा-ठोप रच कर मृत्यु का आह्वान करता हो। कारण कि, अपना आयुष्प्राण सभी जीवों को प्रिय है, किसी को भी अप्रिय नहीं। इसी लिए तो यह प्राणि वध रौद्र बतलाया गया है। प्रत्येक दुःख की उत्पत्ति का कारण यही है। इसी कारण से विज्ञ-भिक्षु इस रौद्र प्राणि-वध का परित्याग करते हैं। जबकि कोई प्राणी मरना चाहता ही नहीं तो फिर उसकी इच्छा के विपरीत क्रिया करनी कभी फलवती नहीं हो सकती है। यदि ऐसा कहा जाए कि वैदिकी हिंसा अहिंसा ही है। क्योंकि, वह हिंसा वेद-मन्त्रों से संस्कृत है अतएव वह हिंसा दुःखप्रद नहीं हो सकती। सभी हिंसाएँ दुःख देने वाली हैं ऐसा नहीं कहना चाहिए? तो इस के उत्तर में कहा जाता है कि, यह कथनं सर्वथा अनभिज्ञता का सूचक है। क्योंकि यदि वेद मंत्रों से संस्कार किया हुआ विष किसी जीव को मारने में समर्थ न हो सके तब उक्त कथन की भी पुष्टि की जा सकती है। परन्तु जब विष वेद-मंत्रों से षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [223