________________ सुख ही प्रिय है दुःख नहीं। दुःख के नाम से तो सभी दूर भागते हैं। अतः सुख की इच्छा रखने वाले सज्जनों का कर्तव्य है कि, वे दुःख पहुँचाकर किसी के सुख में मूर्खाचित विघ्न न डालें। अहिंसा धर्म (दया-धर्म) के पालन से जो जीवात्मा को सुख मिलता है, वह अद्वितीय है। उसके विषय में साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या, बड़े-बड़े तर्कणा-शाली दिग्गजविद्वानों तक की मन-वचन की शक्तियाँ असमर्थ हैं, वे कुछ काम नहीं देतीं। काम तब दें जब कि, यह उनका विषय हो और उस की कहीं न कहीं सीमा हो। भगवान् महावीर का यह प्रतिपादित उपदेश रूप में जिह्वा के ऊपर ही नहीं रहा है प्रत्युत उन्होंने अहिंसा-धर्म के पालन की क्रमबद्ध नियमावली भी बनाई, जो श्रावक और साधु दो विभागों में विभक्त की गई। श्रावक की अहिंसा में अपूर्णता और साधु की अहिंसा में पूर्णता है। साधु-वर्ग की अहिंसा की पूर्णता के लिए ही भगवान् ने साधुओं को आधा कर्म और औद्देशिक आदि हिंसा जनित आहारों के त्याग का बड़े महत्त्वपूर्ण शब्दों में बार-बार उपदेश किया है। संक्षिप्त शब्दों में सूत्रकार के कहने का यह आशय है कि, वस्तुतः अहिंसा ही सुखों को देने वाली है। अतः साधुओं का कर्तव्य है कि, वे इस अहिंसा का पालन बड़ी यत्ना और सावधानी से करें। सूत्र में जो 'दृष्टा' पद दिया गया है, उसका यह भाव है कि, श्री भगवान ने जो यह अहिंसा भगवती का उपदेश किया है। वह स्वयं अपने ज्ञान और अनभव से किया है। किसी से सन कर या आगम से जान कर नहीं किया। इससे एक तो भगवान् की पूर्ण सर्वज्ञता सिद्ध होती है। दूसरे अहिंसा-जन्य-फल-विषयक-संदिग्धता भी दूर हो जाती है। ___ उत्थानिका- अब सूत्रकार, फिर उक्त विषय में ही कहते हैं:जावंति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा। ते जाणमजाणं वा, न हणे णो वि घायए॥१०॥ यावन्तो लोके प्राणिनः, त्रसाः अथवा स्थावराः। तान् जाननजानन् वा, न हन्यात् नापिघातयेत्॥१०॥ ___ पदार्थान्वयः- लोए-लोक में जावंति-जितने भी तसा-त्रस अदुव-और थावरास्थावर पाणा-प्राणी हैं साधु तो ते-उन सभी जीवों का जाणमजाणंवा-जानता हुआ या न जानता हुआ न हणे-स्वयं हनन नहीं करे णोविघायए-औरों से प्रेरणा कर हनन न करवाए तथा हनन करने वालों की अनुमोदना भी न करे। मूलार्थ-संसार मे जो भी त्रस, स्थावर प्राणी हैं, साधु सभी को जानता हुआ अथवा नजानता हुआ, स्वयं उनकी हिंसा न करे और न किसी से करवाए तथा और जो कोई अपने आप करते हों उनकी अनुमोदना भी न करे। टीका- श्री भगवान् प्रतिपादन करते हैं कि, हे भव्य जीवो ! संसार में जितने भी 1. यहाँ यह विचार रखना चाहिये कि, किसी व्यक्ति को दुराचारी से सदाचारी बनाते समय-जो समयानुसार कटुता का वर्ताव किया जाता है, वह हिंसा में सम्मिलित नहीं है। 222] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्