________________ परित्याग करना, 15. पर्यंक आदि पर नहीं बैठना, 16. घरों में जाकर नहीं बैठना, 17.1 देशस्नान तथा सर्व-स्नान का परित्याग करना, 18. विभूषा (शोभा श्रृंङ्गार) का सर्वथा परित्याग करना। यद्यपि सूत्रकार ने 'सोहवजणं' शोभा के साथ ही वर्जन शब्द जोड़ा है। तथापि इसका सन्बन्ध प्रत्येक पद के साथ प्राणातिपात-वर्जन, मृषा-वाद-वर्जन आदि करना उचित है, क्योंकि तभी सूत्र का अर्थ ठीक बैठ सकता है, अन्यथा नहीं। यह सूत्र, चारित्र-विषयक होने से इस में उन्हीं विषयों का समावेश किया गया है, जो चारित्र-विषयक हैं और साथ में उन के न पालने का फल भी दिखलाया गया है। यहाँ यह अवश्य समझ लेना चाहिए कि, केवल क्रियाकलाप से ही आत्म-कल्याण नहीं हो जाता / सम्यग्-ज्ञान और सम्यग्-दर्शन पूर्वक ही क्रियाकलाप आत्मोद्धार करने में सामर्थ्य रखता है। इस स्थल में जो भी चारित्र वर्णित है वह सब ज्ञान-दर्शन पूर्वक ही है। उत्थानिका- अब सत्रकार, 'उक्त अष्टादश-स्थानकों में से प्रथम स्थान का वर्णन करते हैं: तत्थिमं पढ़मं ठाणं, महावीरेण देसि। अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो॥९॥ तत्रेदं प्रथमं स्थानं, महावीरेण देशितम्। अहिंसा निपुणा दृष्टा, सर्वभूतेषु संयमः॥९॥ पदार्थान्वयः- तत्थिमं-उन अष्टादश स्थानकों में से यह पढ़म-प्रथम ठाणं-स्थानक महावीरेण-भगवान् महावीर स्वामी ने देसिअं-अनासेवन द्वार से उपदेशित किया है। क्योंकि अहिंसा-जीवदया निउणा-निपुणा-अनेक प्रकार के सुखों को देने वाली दिट्ठा-देखी गई है। अतएव सव्वभूएसु-सर्व भूतों के विषय में संजमो-संयम रखना चाहिए। मूलार्थ-अष्टादश स्थानकों में से यह प्रथम अहिंसा-स्थानक, भगवान् महावीर स्वामी ने उपदेशित किया है, अहिंसा सब सुखों को देने वाली देखी गई है। अतः त्रसस्थावर सभी जीवों के विषय में पूर्णतया संयम रखना चाहिए। टीका-इस गाथा में अष्टादश-स्थानकों में से सब से प्रथम अहिंसा व्रत के विषय में कथन किया है। जैसे कि, श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपने अप्रतिहत केवल ज्ञान में अहिंसा भगवती को देखा। जो सब सुखों को देने वाली, प्राणि-मात्र से प्रेमोत्पादन करने वाली एवं मोक्ष-पथ प्रदर्शन करने वाली है। विश्व-हितैषी वीर ने कल्याणाभिलाषी मनुष्यों को शिक्षा देते हुए यह प्रतिपादन किया कि, अयि भव्य मनुष्यों ! संसार में छोटे-बड़े दुष्ट-अदुष्ट जितने भी प्राणी हैं सभी की रक्षा करो किसी को भी दुःख मत पहुँचाओ, क्योंकि सभी प्राणियों को एक 1. देशस्नान- हाथ पैर आदि का प्रक्षालन तथा सर्वसन्नान- सिर से लेकर पैरों पर्यंत सर्वाङ्ग पर जल की एक धारा डालनी। साधु के लिए यह स्नान कि या सर्वथा अयोग्य है-इसका विशेष वर्णन इस स्थान की व्याख्या में किया जाएगा। षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [221