________________ मूलार्थ-जो विवेक-विलुस व्यक्ति, सम्पूर्ण अष्टादश स्थानों की तथा किसी भी एक स्थान की विराधना करता है। वह साधुता के सर्वोच्च पद से बुरी तरह भ्रष्ट हो जाता है। टीका-इस गाथा में साधु के मुख्य-मुख्य गुणों के विषय में कथन किया गया है और बतलाया गया है कि, ये अष्टादश वास्तविक साधुता के गुण हैं। जो इन गुणों पर पूर्ण रूप से स्थिर है, वही सच्चा साधु है और जो प्रमाद के कारण इनकी विराधना कर देता है, वह साधुता से भ्रष्ट हो जाता है अर्थात्-वह साधु-वृत्ति से पतित माना जाता है। यहाँ कहा जा सकता है कि, संसार का परित्याग कर जो साधु ही हो गया तो वह फिर किस प्रकार अपने गुणों की विराधना कर सकता है ? उत्तर में कहा जाता है कि, स्वयं सूत्रकार ने ही इस शङ्का का समाधान कर दिया है। क्योंकि, सूत्र में जो 'बालो'-'बालः' शब्द आया है उसका यही भाव है कि, जब कोई व्यक्ति किसी नियम का खंडन करने लगता है तब वह अज्ञान और प्रमाद से युक्त हो जाता है और जब अज्ञान और प्रमाद भाव से युक्त हो गया तो तब वह साधुता से स्वयं ही पतित हो जाता है, फिर उस में साधुता कहाँ रह गई ? यह तो रही निश्चय पक्ष की बात / व्यवहारं पक्ष में भी.साधु जिस नियम को तोड़ता है, वह उस नियम से भ्रष्ट माना जाता है। कोई सभ्य पुरुष उसमें पूर्ण साधुता स्वीकार नहीं करता। उत्थानिका- अब आचार्य, अष्टादश स्थानों के नाम बतलाते हैं:वयछक्कं कायछक्कं, अकप्पो गिहिभायणं। पलियंकनिसज्जा य, सिणाणं सोहवज्जणं॥८॥ व्रतषट्कं कायषट्क, अकल्पो गृहिभाजनम्। पर्यङ्क-निषद्ये च, स्नानं शोभावर्जनम्॥८॥ .. पदार्थान्वयः-सच्चा साधु वयछक्कं-छः व्रत का पालन करे तथा काय-छक्कं-षट्-काय अकप्पो-अकल्पनीय पदार्थ गिहिभायणं-गृहस्थों के पात्रों में भोजन करना पलियंक-पर्यंक पर बैठना य-तथा निसज्जा-गृहस्थ के घर पर तथा गृहस्थ के आसन पर बैठना सिणाणं-स्नान एवं सोहवजणं-शरीर की शोभा को सर्वथा वर्जे।। मूलार्थ-साधु के लिए प्राणातिपात आदि छः व्रत, पृथ्वी-काय आदि छः जीवनिकाय, अकल्पनीय पदार्थ, गृहस्थ के भाजन में भोजन करना, पर्यंक पर बैठना, गृहस्थों के घरों में एवं गृहस्थों के आसनों पर बैठना, स्नान करना और शरीर की विभूषा करना ये सब सर्वथा त्याज्य हैं। ___टीका-इस गाथा में अष्टादश-स्थानों के नाम बतलाए हैं। यथा- षड्व्रत- 1. प्राणातिपात, 2. मृषावाद, 3. अदत्ता-दान, 4. अब्रह्मचर्य, 5. परिग्रह, 6. रात्रि-भोजन। इन छः अव्रतों का सर्वथा परित्याग करना। षट्काय-७. पृथ्वीकाय, 8. अप्काय, 9. तेजस्काय, 10. वायुकाय, 11. वनस्पति-काय 12. त्रसकाय / इन छ: कायों के जीवों की रक्षा करनीं। 13. अकल्पनीय पदार्थ का परित्याग करना, 14. गृहस्थ के कांसी आदि के पात्रों में भोजन करने का 220] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्