________________ टीका-इस गाथा में निर्ग्रन्थाचार के गौरव का प्रदर्शन किया है। जैसा कि, गणी जी महाराज कहते हैं 'हे राजादि भव्यो ! जैसा साध्वाचार का वर्णन जैन-धर्म में किया है वैसा अन्य किसी भी मत में नहीं है। जैन-साधु का आचार अतीव दुर्द्धर है इसे निर्बल आत्माएँ सहज में धारण नहीं कर सकती। यही कारण है कि, अन्य किसी मत में ऐसे विपुल-स्थान सेवी साधु न तो पहले कभी हुए और न अब भविष्य में कभी होंगे। वर्तमान काल तुम्हारे सम्मुख है, इस में भी जिधर देखो उधर ही पूर्ण अभाव देखने में आता है।' गणी जी के कहने का यह आशय है कि, जैन-साधुओं का आचार-गोचर कुछ साधारण श्रेणी का नहीं है। जो हर कोई दुर्बल-हृदय आसानी से इसका पालन कर ले। जैन-साधुओं का आचार अत्यन्त कठिन है। कठिन क्या ? जीते ही मर जाना है। इस को धारण करने के लिए पहले अपनी आत्मा में असाधारण-साहस शक्ति पैदा करने की परम आवश्यकता है। यही करण है कि, जैन-धर्म जैसा निर्ग्रन्थाचार का वर्णन अन्य सुकुमार, सुख-दुःख विचारक मतों में कहीं भी नहीं मिलता। इसकी दुर्लभता का कारण यही है कि, आचार सम्यग् दर्शन के अधीन है। बिना सम्यग् दर्शन के आचार में आचारत्व नहीं आ सकता है। यहाँ शङ्का हो सकती है कि, जैन शास्त्रों में जब 'अन्नलिंगी सिद्धा' पाठ आता है तो फिर सूत्रकार का यह कथन किस प्रकार संगत हो सकता है ? क्या कभी किसी को बिना आचार के भी मोक्ष मिला है ? यदि नहीं, तो फिर 'अन्न लिंगी सिद्धा' (अन्य मत से मोक्ष प्राप्त सिद्ध भगवान्), इस जैन-पाठ से ही अन्य मत में उत्कृष्ट आचार का होना सिद्ध हो जाता है। इस शङ्का के समाधान में कहना है कि, जहाँ जैन-शास्त्रों में मोक्ष प्राप्त आत्माओं का वर्णन करते हुए जो 'अन्न लिङ्गी सिद्धा' पाठ आया है, वहाँ पर लिङ्ग का अभिप्राय वेष से ही है, आचार से नहीं। आचार अर्थ में प्रयुक्त हुआ लिङ्ग शब्द सैद्धान्तिक रूप में कहीं नहीं देखा जाता। यदि सूत्रकारों को अन्य मत का आचार ही अभिप्रेत होता, तो वे लिङ्ग शब्द पर क्यों जाते ? सीधे आचार शब्द को जोड़ कर 'अन्न आचार सिद्धा' ऐसा ही पाठ पढ़ देते जो पूर्णअसंदिग्ध रहता। सर्वदा आशय को शब्दों द्वारा असंदिग्ध रखना सूत्रकारों का असाधारण गुण होता है। इसके बिना सच्चा सूत्रकार नहीं बन सकता। अस्तु 'अन्नलिङ्गी सिद्धा' इस पाठ से यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि, सिद्ध होने वाले व्यक्ति का लिङ्ग भले ही अन्य किसी मत का हो; परंतु वास्तविकता में उसकी आत्मा सम्यग-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान और सम्यग-चरित्र रूप वास्तविक जैनत्व से विभूषित रहती है। तभी वह अक्षत, अमर पद प्राप्त करता है। ऊपर के वक्तव्य से स्वयं ही यह निष्कर्ष निकल आता है कि, शास्त्रकारों का जो कुछ भी कथन होता है, वह व्यक्ति-गत न होकर गुण-गत होता है। व्यक्ति चाहे किसी भी मत के किसी भी लिङ्ग में हो यदि उसका स्वीकृत-आचार सम्यक् है तो वह आचार सर्वज्ञ प्रतिपादित ही जानना चाहिए। क्योंकि, वहीं जैनत्व है। सम्यगाचार जहाँ कहीं हो सर्वोत्तम ही रहता है। वह कभी दुराचार नहीं बन सकता। उत्थानिका- अब आचार्य, 'वह आचार सभी भिक्षुओं के लिए एक समान पालन करने योग्य है' यह कहते हैं सखुड्डग्गवियत्ताणं , वाहियाणं च जे गुणा। / अखंडफुडिया कायव्वा, तं सुणेह जहा तहा // 6 // 218] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्