________________ श्रुत-धर्म और चारित्र-धर्म का एवं अर्थ शब्द से मोक्ष का ही ग्रहण है। क्योंकि, प्रश्र-कर्ताओं के प्रश्न का सम्बन्ध इसी धर्म से है, अन्य से नहीं। जब यह सिद्ध हो जाता है तो साथ ही यह भी सिद्ध हो जाता है कि. श्रत-धर्म और चारित्र-धर्म का अर्थ (प्रयोजन) वस्तुतः मोक्ष ही है। यदि ऐसा कहा जाए कि, प्रश्र-कर्ताओं ने तो बिना किसी भेद-विवक्षा के यह प्रश्न किया था कि, हे भगवन् ! आपका आचार-विचार किस प्रकार का है ? परन्तु गणी जी उत्तर में भिक्षुओं के आचार का ही वर्णन करने लग गए हैं, तो क्या यह भ्रान्ति नहीं है ? इस के उत्तर में कहा जाता है कि, प्रश्न में जो आप शब्द आया है, उसका सम्बन्ध भिक्षु-संघ से ही है। इसी लिए गणी-महाराज ने उक्त प्रश्र के उत्तर में निर्ग्रन्थों के आचार विषय को श्रवण करने के लिए प्रश्रकर्ताओं को सावधान किया है। यदि यह और कहा जाए कि- आचार शब्द का भीम शब्द के क्यों सम्बन्ध रखा गया है? तो कहना है कि जिस प्रकार वस्त्र-गत-मल के लिए क्षारपदार्थ रौद्र है, ठीक उसी प्रकार कर्म-मल के लिए भिक्षु-आचार रौद्र है तथा जिस प्रकार क्षार द्वारा मल के निकल जाने पर वस्त्र स्वच्छ और शुद्ध हो जाता है, ठीक उसी प्रकार इस आचार द्वारा कर्म-मल के निकल जाने पर आत्मा स्वच्छ और शुद्ध हो जाती है। सूत्रकार ने जो 'दुरधिष्ठित' पद दिया है, उसका भी यही भाव है कि, सकल आचार का धारण करना दुर्बल आत्माओं के लिए असंभव नहीं है तो कठिन अवश्यमेव है तथा इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि, संपूर्ण आचार के स्थान पर असंपूर्ण आचार तो बहुत सी आत्माएँ पालन कर सकती हैं। जिससे वे उस जन्म में मोक्ष-प्राप्ति न करते हुए भी स्वर्ग-प्राप्ति अवश्यमेव कर लेते हैं। सूत्रगत 'हंदि' शब्द अव्यय है। इसके 'हेमचन्द्राचार्य' विरचित 'हेमशब्दानुशासन' के 'हंदि विषाद विकल्प पश्चात्ताप निश्चय सत्ये / 8-2-180 / ' सूत्रानुसार अनेक अर्थ होते हैं। परन्तु प्रकरणसंगत्या यहाँ पर उपदर्शन अर्थ ही गृहीत है। _उत्थानिका- अब आचार्य, प्रतिपाद्य-आचार-गोचर के गौरव का वर्णन करते हैं:नन्नत्थ एरिसं वुत्तं, जं लोए परमदुच्चरं। विउलट्ठाणभाइस्स , न भूअं न भविस्सइ॥५॥ . नान्यत्रेदमुशक्तं , यल्लोके परमदुश्चरम्। विपुलस्थानभागिनः, न भूतं न भविष्यति॥५॥ पदार्थान्वयः- अयि भव्वो ! अन्नत्थ-जैनशासन के अतिरिक्त अन्य मतों में न एरिसं वुत्तं-इस प्रकार के उन्नत आचार का कथन नहीं किया गया है जं-जो लोए-प्राणि लोक में परमदुच्चरं-अत्यन्त दुष्कर है अर्थात्-जिसका पालन करना अतीव कठिन है। अन्य मतों में ऐसा विउलट्ठाणभाइस्स-विपुल स्थान के सेवक साधुओं का आचार न भुअं-न गत काल में कभी हुआ और न भविस्सइ-न आगामी काल में कभी होगा (उपलक्षण) से, न अब वर्तमान काल में कहीं है। मूलार्थ-अयि, धर्म-प्रेमी सज्जनो ! जैसा कि संयम स्थान सेवी, साधुओं का सदाचार जैन धर्म में वर्णित है, वैसा और किसी मत में नहीं है। निर्ग्रन्थ-साधुओं का ऐसा उत्कृष्ट आचार न अन्य मतों में कभी हुआ और न भविष्य में कभी होगा। वर्तमान तो प्रत्यक्ष है, इस समय किसी में भी दिखाई नहीं देता है। षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / . [217