________________ जीवों को (शत्रु, मित्र एवं उदासीनों को) एक प्रकार से सुख शन्ति का उपदेश देते हैं) इस प्रकार उक्त गुणों केधारक, परम विचक्षण सत्पुरुष, जब जिस विषय का वर्णन करने लगेंगे, तब उस विषय को अत्यन्त स्फट रूप से वर्णन करके बस चित्र ही खींच कर दिखा देंगे। जिसकी जिस विषय में अव्याहत गति है, वह अवश्य ही उस विषय में श्रोतागण और शिष्यों को मंत्रमुग्ध-सा कर देता है। अब यहाँ सूत्र-गत षष्ठी विभक्ति सम्बन्धी शङ्का के विषय में कहा जाता है, यद्यपि सूत्र में 'तेसिं'-'तेषाम्' षष्ठी विभक्ति दी गई है, परन्तु यह षष्ठी विभक्ति , चतुर्थी विभक्ति के ही स्थान में व्यवहृत है। क्यों कि प्राकृत भाषा में 'चतुर्थ्याः षष्ठी' इस सूत्र से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का ही विधान किया गया है। यदि कोई सज्जन कहे इस गाथा के निर्माता कौन हैं ? तो इस शङ्का के उत्तर में कहना है कि, स्वयं सूत्रकार ही इस गाथा के निर्माता हैं। उन्होंने सम्बन्ध पूर्ति के लिए इस गाथा का निर्माण किया है। उत्थानिका-अब सूत्रकार, 'जिज्ञासु-जनों के प्रश्न के उत्तर में आचार्य जी ने क्या कहा ?' इस विषय में कहते हैं:हंदि धम्मत्थकामाणं, निग्गंथाणं सुणेह मे। आयारगोयरं भीमं, सयलं दुरहिट्ठिअं॥४॥ हंदिर हन्त)धर्मार्थ-कामानां, निर्ग्रन्थानां शृणुतमत्। आचार-गोचरं भीम, सकलं दुरधिष्ठितम्॥४॥ पदार्थान्वयः-हंदि-हे राजा आदि लोगो ! तुम धम्मत्थकामाणं-धर्म अर्थ कामना वाले निग्गंथाणं-निर्ग्रन्थों के भीमं-कठिन कर्म 'शत्रुओं के प्रति जो भयंकर है' और दुरहिट्ठिअंकायर-पुरुषों के प्रति जो दुरधिष्ठित (धारण करना अशक्य) है, ऐसे सयलं-समग्र आयारगोयरंआचार-गोचर को मे-मुझ से सुणेह-श्रवण करो। मूलार्थ-अयि जिज्ञासुओ! जो धर्म अर्थ की कामना करने वाले निर्ग्रन्थ हैं, उनके भीम और दुरधिष्ठित सम्पूर्ण आचार-गोचर का वर्णन मुझ से सावधान होकर सुनो। टीका-इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि, जब उन राजा आदि लोगों ने आचार्य जी से प्रश्न किया कि, हे भगवन् ! आपका आचार-गोचर किस प्रकार का है ? तब आचार्य जी उक्त प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व उन लोगों को संबोधन द्वारा महात्माओं के महान् आचार विषय को सनने के लिए सावधान करते हैं। जैसे कि. हे जिज्ञास-श्रोताओ ! जिन पवित्र-आत्माओं ने संसार के दुःसम्बन्ध को अपने अन्त:करण से पूर्णरूप से त्याग दिया है, उन धर्म और अर्थ की कामना करने वाले श्रमण निर्ग्रन्थों के भीम और दुरधिष्ठित आचार का विधान उपयोग पूर्वक मुझ से श्रवण करो। यद्यपि, सूत्र-गत धर्म और अर्थ ये दोनों शब्द अनेक अर्थों के वाचक हैं। जैसे कि, धर्म शब्द ग्राम-धर्म, नगर-धर्म, राष्ट्र-धर्म, कुल-धर्म, गण-धर्म, संघधर्म, पाषण्ड-धर्म, श्रुत-धर्म, चारित्र-धर्म, और अस्तिकाय-धर्म आदि का वाचक हैं। इसी प्रकार अर्थ शब्द भी धन और धान्य के साथ सम्बन्ध रखता है। इस तरह धन और धान्य के अनेक भेद होने से अर्थ के भी अनेक अर्थ हो जाते हैं / तथापि उस स्थान पर धर्म शब्द से केवल 216] दशवैकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्