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________________ जिसका आचार और आहार शुद्ध होता है, वही सच्चा आस्तिक कहलाता है और आस्तिक का मुख्य उद्देश्य निर्वाण पद प्राप्त करना है। सच्चे आस्तिक की तृप्ति छोटी-मोटी स्वर्गादि वस्तुओं से नहीं होती है। बल्कि वह तो पूरी सिद्धि प्राप्त करके ही विश्राम लेता है। अध्याय के नाम के विषय में पूछा जाता है कि, इस वर्णित अध्याय का नाम महाचार-कथाख्य क्यों रक्खा गया है ? ऐसी इस नाम में क्या वर्णनीय विशेषता है ? तो उत्तर में कहा जाता है कि, जो संयमाचार 'क्षुल्लकाचार कथाख्य' तीसरे अध्याय में वर्णित है; उसकी अपेक्षा यह महाचार कथाख्य अध्याय बड़ा है अर्थात्-उसकी अपेक्षा इस अध्याय में आचार सम्बन्धी वर्णन सविस्तार प्रतिपादित किया जाएगा। उत्थानिका- राजा आदि के प्रश्रों के अनंतर आचार्य जी कहते हैं:तेसिं सो निहुओ दंतो, सव्वभूअसुहावहो / सिक्खाए सुसमाउत्तो, आयक्खइ वियक्खणो॥३॥ तेभ्यः स निभृतः दान्तः, सर्वभूत - सुखावहः। शिक्षया सुसमायुक्तः, आख्याति विचक्षणः॥३॥ ___पदार्थान्वयः- निहुओ-भय से रहित (असंभ्रान्त) दंतो-इन्द्रियजयी सव्वभूअसुहावहो-समस्त जीवों का हित करने वाला सिक्खाए-ग्रहण आसेवन रूप शिक्षा से सुसमाउत्तो-भलीभाँति संयुक्त एवं नियंक्खणो-परम विचक्षण सो-वह आचार्य तेसिं-उन राजा आदि प्रश्न कर्ताओं से आयक्खइ-प्रश्न के उत्तर में कहता है। .. मूलार्थ-सर्वथा असंभ्रान्त, चञ्चल-इन्द्रियों को जीतने वाले, सब जीवों को सुख पहुँचाने वाले, ग्रहण और आसेवन रूप शिक्षाओं से संयुक्त, परम विचक्षण वे उद्यान में विराजित आचार्य उन राजा आदि प्रश्न कर्ताओं से उत्तर में कहते हैं। टीका-इस गाथा में उत्तर-दाता आचार्य जी के श्रेष्ठ गुणों का वर्णन किया गया है। जैसा कि, वे आचार्य सब प्रकार के भयों से रहित हैं, पाँचों इन्द्रियाँ और मन को जीतने वाले हैं। ग्रहण और आसेवन रूप शिक्षा विधि के सुमर्मज्ञ हैं, परिवर्तनशील समय की परिस्थिति को ठीक-ठीक जानने वाले हैं, इतना ही नहीं, किन्तु संसार के सभी जीवों के परम हित चिन्तक अर्थात् (परम हितकारी) हैं। एवं विध गुणोपेत वे आचार्य जी महाराज अब प्रश्न-कर्ता राजा आदि लोगों के प्रश्न के उत्तर में विस्तृत-विवेचना करते हुए कथन आरम्भ करते हैं। . इस गाथा के कहने का सारांश यह है कि, जब तक वक्ता सब प्रकार से वक्ता के योग्य गुणों से सुशोभित नहीं होगा, तब तक उसका प्रतिवचन अर्थात्-उत्तर, निष्पक्ष और असाधारण - उपमा से उपमित नहीं हो सकेगा। इसी कारण सूत्रकार ने आचार्य जी के लिए मुख्य विशेषण रूप से यह पद पढ़ा है 'सिक्खाए सुसमाउतो' इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि, 'आचार्य जी ग्रहण और आसेवन रू वन रूप-सन्दर शिक्षाओं से भव्यरीत्या (अच्छी तरह) सशोभित (जानकार) हैं।' क्योंकि जिनकी आत्माएँ सुशिक्षाओं से सुशोभित होती हैं, वे ही असम्भ्रान्त और विजितेन्द्रिय होते हैं। इतना ही नहीं, बल्कि वे सब जीवों के सुखकारी भी होते हैं। उनकी ओर से कोई ऐसी क्रिया नहीं होती, जिससे किसी को दुःख पहुँचे। वे अपने शीतल, शांत, मधुर-उपदेश से सब षष्ठाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [215
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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