SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रायाणो रायमच्चा य, माहणा अदुव खत्तिया। पुच्छंति निहुअप्पाणो, कहं भे आयारगोयरो॥२॥युग्मम् ज्ञानदर्शनसंपन्नं , संयमे च तपसि रतम् / . गणिनमागमसंपन्नम् , उद्याने समवसृतम् // 1 // राजानो राजामात्याश्च , ब्राह्मणा अथवा क्षत्रियाः। पृच्छन्ति निभृतात्मानः, कथं भवतामाचारगोचरः॥२॥ __ पदार्थान्वयः-रायणो-राजा य-और रायमच्चा-राजमंत्री माहणा-ब्राह्मण अदुवअथवा खत्तिया-क्षत्रिय आदि लोग निहुअप्पाणो-निश्चलात्मा होकर नाण-दंसण-संपन्नं-ज्ञानदर्शन से संपन्न संजमे-संयम य-और तवे-तप में रयं-रत आगमसंपन्नं-आगम सिद्धान्त से संयुक्त उज्जाणम्भि समोसढं-उद्यान में समवसृत अर्थात् विराजित गणिं-आचार्य जी को पुच्छंति-पूछते हैं कि, हे भगवन् ! भे-आप जैनसाधुओं का आयारगोयरो-आचार गोचर कहं-किस प्रकार का है। मूलार्थ-राजा, राजमन्त्री, ब्राह्मण तथा क्षत्रिय आदि लोग निश्चल-चित्त से ज्ञान-दर्शन संपन्न, संयम और तप की क्रियाओं में पूर्णतया रत, आगम-ज्ञानी, उद्यान में पधारे हुए आचार्य जी से पूछते हैं कि हे भगवन् ! आपका आचार गोचर क्रिया कलाप . कैसा है ? कृपया हमें उपदेश करके कृतार्थ कीजिए। टीका-पूर्व पिण्डैषणा अध्ययन में साधुओं की भिक्षा-विशुद्धि पर शास्त्रकार द्वारा अधिकतर प्रकाश डाला जा चुका है। अब प्रसंग वश इस अध्ययन द्वारा प्रश्नोत्तर रूप में साधुओं के अन्य संयमाचार पर भी समुचित प्रकाश डाला जाएगा। इस प्रारम्भिक गाथा युग्म में प्रश्न, प्रश्न-कर्त्ता तथा उत्तर दाता तीनों की असाधारणता का वर्णन किया है तथा उत्तर-दाता आचार्य जी की असाधारणता, ज्ञान-दर्शन-संपन्न आदि सुविशाल विशेषणों से सूत्रकार ने स्पष्टतः बतला दी है। इसी लिए प्रयोजन (उत्तर सिद्धि) के लिए तीनों में असाधारणता का होना अतीव आवश्यक है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि, जब पहले आचार्य को ज्ञान-दर्शन-संपन्न के सुन्दर विशेषणों से समलंकृत कर दिया है तो फिर आगे जाकर आगम संपन्न का दूसरा विशेषण व्यर्थ क्यों दिया है ? उत्तर में यही कहना है कि. बहत से आगमों की प्रधानता दिखाने के लिए, आचार्य को विशिष्ट-श्रुतधर सिद्ध करने के लिए और गुरुगत अनुयोग शैली की परंपरा को अविच्छिन्न सिद्ध करने के लिए तथा आचार्य जी का बुद्ध-बोधितत्त्व प्रकट करने के लिए 'आगमसंपन्न' का विशेषण दिया गया है अतः इसकी निरर्थक आशङ्का करना सर्वथा भ्रम है। दूसरी प्रश्न विषयक आशङ्का यह होती है कि, प्रश्न में आचार' और 'गोचर' यह दो शब्द क्यों हैं ? मोक्षादि अन्य ऊँचे जटिल प्रश्न क्यों नहीं किए ? इसका भी समाधान स्पष्ट है कि, आचारशब्द से सदाचार का और गोचर-शब्द से भिक्षा-वृत्ति का ग्रहण है। दोनों का शुद्ध-वृत्ति से . पालने का जो मुख्योद्देश्य है वह निर्वाण प्राप्ति करना ही है। अतः भाव-गाम्भीर्य के विशाल दृष्टिकोण से सब से पहले आचार और गोचर का ही प्रश्न किया है। इसी प्रश्न में अन्य सभी प्रश्नों का समावेश हो जाता है। इसके साथ ही यह बात भी भली-भाँति जान -लेनी चाहिए कि, 214] दशवकालिकसूत्रम् [षष्ठाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy