________________ अह महायारकहा णाम छट्टमज्झयणं अथ महाचारकथानामकं षष्ठमध्ययनम्। उत्थानिका- पूर्व अध्ययन में निर्दोष आहार ग्रहण करने की विधि प्रतिपादित की गई है, इसलिए पूर्वोक्त विधि-पूर्वक निर्दोष-आहार शुद्ध-संयमधारी मुनि ही ग्रहण कर सकता है, अन्य नहीं। अतः प्रस्तुत महाचार-कथाख्य-अध्ययन में अष्टादश-स्थानक रूप शुद्ध-संयम का वर्णन किया जाता है। इस अध्ययन का समुत्थान-प्रसंग, वृद्ध-परंपरा इस प्रकार कहती हैकोई भिक्षा-विशुद्धि का ज्ञाता साधु भिक्षार्थ नगर में गया। मार्ग में राजा, राजमंत्री, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि साध्वाचार की जिज्ञासा वाले सज्जन मिले। उन्होंने उस साधु से पूछा कि, हे भगवन् ! आप साधुओं का आचार गोचर-क्रिया-कलाप क्या है ? आप मोक्ष प्राप्ति के किन साधनों को प्रयोग में ला रहे हैं ? कृपया जैसा हो वैसा बतलाइए, हमें आप के आचार-विचार जानने की अतीव उत्कंठा है।साधु ने उत्तर दिया कि, मैं आप लोगों के इस प्रश्र का उत्तर जैसा चाहिए वैसा समुचित विस्तार से इस समय यहाँ नहीं दे सकता। क्योंकि, यह समय हमारी आवश्यक भिक्षादि-क्रियाओं का है / इस के अतिक्रम हो जाने से फिर अनेक प्रकार के दोषों के उत्पन्न होने की संभावना है। अस्तु, आप लोग अपने इस प्रश्न का उत्तर बाहर 'अमुक' बाग में हमारे आचार्य श्री जी विराजे हुए हैं, उनसे लें। वे ज्ञान-दर्शन-संपन्न, संयमी एवं पूर्ण अनुभवी आचार्य हैं / निश्चय रक्खें, आपको अपने प्रश्न का यथोचित उत्तर उन से अवश्य ही मिल जाएगा। मुनि श्री के इस प्रकार कहने पर वे राजादि लोग आचार्य जी के पास पहुँचे और अपना प्रश्र, उत्तर की जिज्ञासा से आचार्य श्री जी के सम्मुख रक्खा। आचार्य जी ने विस्तार के साथ जो उत्तर दिया, वह इस अध्ययन में कहा गया हैनाण दंसण संपन्नं, संजमे य तवे रयं। गणिमागमसंपन्नं , उजाणम्मि समोसढ़॥१॥ 1 यह कथन दो बातों पर जैसा चाहिए वैसा स्पष्ट प्रकाश डालता है. एक तो यह कि साधु भिक्षा के लिए जाते हुए मार्ग में या अन्य किसी स्थान पर विस्तृत-विवेचना से धार्मिक विषयों का कभी वर्णन न करे। दूसरे यह कि,शिष्य का हृदय गुरु-भक्ति-युक्त होना चाहिए। समर्थ गुरु श्री की विद्यमानता में स्वयं वर्णन क्षम होने पर भी गुरु श्री के प्रति संकेत करे।तभी गणोऽस्यास्तीतिगणी' का वास्तविक महत्त्व सुस्थित हो सकता है, अन्यथा नहीं। आज की स्वच्छन्दतानुगामिनी शिष्यमण्डली ध्यान दे।