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________________ तत्रभिक्षुः सुप्रणिहितेन्द्रियः, तीव्रलजः गुणवान् विहरेत् // 52 // इति ब्रवीमि। इति पिण्डैषणाया: पंचमाध्ययने द्वितीय उद्देशः समाप्त // 5 // पदार्थान्वयः- सुप्पणिहिइन्दिए-भलीभाँति वश में की हैं इन्द्रियाँ जिस ने ऐसा तिव्वलज्ज-अनाचार से अत्यन्त लज्जा रखने वाला गुणवं-गुणवान् भिक्खू-साधु बुद्धाण-तत्त्व के जानने वाला संजयाण-गीतार्थ साधुओं के सगासे-पास में भिक्खेसणसोहिं-भिक्षैषणा की शुद्धि को सिक्खिऊण-सम्यक्तया सीख कर तत्थ-उस एषणा समिति के विषय में विहरिजसि-सानन्द विचरण करे।त्ति बेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। मलार्थ- भली भाँति इन्द्रियों को निग्रह करने वाला. अनाचार सेवन से तीव लज्जा रखने वाला, संयतोचित श्रेष्ठ गणों वाला संयमी. तत्त्वज-मनियों के पास में विनय भक्ति से भिषणा शद्धि का सम्यग ज्ञान प्राप्त कर.एषणा समिति की समाचारी का विशुद्ध रूप से पालन करता हुआ सानन्द संयम क्षेत्र में विहार करे। टीका- इस अन्तिम गाथा में अध्ययन का उपसंहार करते हुए आचार्य जी कहते हैं कि, साधु का कर्तव्य है वह तत्त्व-वेत्ता-शुद्धाचारी, विद्या-वृद्ध मुनियों के पास विनय पूर्वक भिक्षा की एषणा शुद्धि को सीख कर, भलीभाँति इन्द्रियों को वश में रक्खे एवं उत्कृष्ट-संयम का पालन करता हुआ 'अप्पाणं भावेमाणे' विचरे, क्योंकि शुद्ध-समाचारी के पालन से ही साधु की चंचल-इन्द्रियाँ समाधि में स्थिर रह सकेंगी। इस अध्ययन के कथन करने का यह भाव है कि, साधु को सब से प्रथम भिक्षैषणा के ज्ञान की अत्यन्त आवश्यकता है। क्योंकि भिक्षैषणा के ज्ञान से'ही आहार की शुद्धि होती है और शुद्ध आहार से ही प्रायः शुद्ध मन रह सकता है। जब मलिन मन शुद्ध हो गया तो चञ्चल इन्द्रियाँ अपने आप कुमार्ग गमन से रूक जाएँगी और जिस समय इन्द्रियाँ कुमार्ग गमन से रूक गई तो फिर मोक्ष अपने हाथ में ही है जब मन चाहे तब ले सकता है। प्रस्तुत सूत्र में जो शिक्षित्वा' पद दिया है। उसका यह भाव है कि, जो विधि गुरु मुख से सीखी हुई हो, वही फलवती होती है / यदि वह विधि देखा देखी सीखी जाए 'अर्थात् बिना गुरु के किसी का अनुकरण किया जाए तो कभी फलवती नहीं होती है, बल्कि फल देने की अपेक्षा पूरी-पूरी अनर्थ कारिणी हो जाती है, क्योंकि गुरु शिक्षण के बिना देखा देखी के कार्य में चाहे कितनी ही चतुरता करो, त्रुटियाँ अवश्य रह जाती है। 'देखा देखी साधे जोग छीजै काया बाढे रोग।' कहने का आशा यह है कि, निर्वाण पद प्रदायक होने से प्रत्येक विधि गुरु-मुख से ही सीखनी चाहिए। यही मार्ग सत्य है, शिव और सुन्दर है। ___ 'श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे वत्स! श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी के मुखारविन्द से जैसा अर्थ इस अध्ययन का सुना है, वैसा ही मैंने तुझ से कहा है। अपनी बुद्धि से कुछ भी नहीं कहा।' पंचमाध्ययन द्वितीयोद्देशकः समाप्त। 212] दशवैकालिकसूत्रम् - [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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