________________ मूलार्थ-बुद्धिमान् मर्यादा-बुद्ध-साधु , ज्ञातपुत्र-भाषित इन पूर्वोक्त दोषों को सम्यक्तया देखकर, स्तोक-मात्र भी माया-मुषा भाषण न करे। टीका-चौर्य कर्म करने वाले मुनि, सद्गति नहीं पाते। वे साधु क्रिया करते हुए भी किल्विषदेव ही होते हैं। वहाँ से भी वे नरक, तिर्यंच योनियों में चिरकाल तक परिभ्रमण करते हैं। पूर्वोक्त जिन दोषों का वर्णन श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने किया है, उन दोषों को आगम से भलीभाँति देखकर (जानकर) साधुओं को किसी अवस्था में अणु-मात्र भी मायामृषा आदि दोषों को धारण नहीं करना चाहिए, क्योंकि जब अणु-मात्र का भी इतना भीषण फल वर्णन किया गया है, तो फिर प्रभूत (अधिक) के फल का तो कहना ही क्या है ? 'अधिकस्याधिकं फलम्।' अतः सिद्धान्त यह निकला कि, छल और असत्य कदापि नहीं करना चाहिए। इसका परिणाम भव-सन्तति का वृद्धि होना है- इस क्रिया के करने से चाहे कुछ भी करो आत्म-विकास कभी नहीं हो सकता। परम-पवित्र-सत्य और आर्जव-भाव से ही आत्मा स्व-विकास की ओर झुकती है और फिर शनैः शनैः विकास होते-होते पूर्ण विकास हो जाने पर, शिव, अचल, अरूज, अनन्त, अक्षय, निर्वाण पद प्राप्त कर लेती है। - उक्त सूत्र में जो 'ज्ञातपुत्रेण भाषितं' पद दिया हुआ है। उसका यह भाव है कि, यह सत्योपदेश श्री भगवान् महावीर स्वामी का है, किसी अन्य साधारण व्यक्ति का नहीं। सर्वज्ञ के वचनों में ही पूर्ण सत्यता और पूर्ण हितावहता होती है। - उत्थानिका- अब सूत्रकार, इस अन्तिम गाथा द्वारा अध्ययन का उपसंहार करते हुए शिक्षा देते हैं:- .. सिक्खिऊण भिक्खेसणसोहिं, संजयाण बुद्धाण सगासे। तत्थ भिक्खूसुप्पणिहिइन्दिए, तिव्वलज्ज गुणवं विहरिज्जासि॥५२॥ त्ति बेमि। - इति पिंडेंसणाए पंचमज्झयणे विइयो उद्देशो समत्तो। शिक्षित्वा . भिक्षैषणाशुद्धिं, संयतेभ्यः बुद्धेभ्यः सकाशात्। 1 अन्य तीर्थंकरों की साक्षी न देकर भगवान् महावीर की ही साक्षी देने का यह अभिप्राय है कि, आधुनिक साधु संघ, जगद्-गुरु भगवान् महावीर का शिष्य है। धार्मिक दृष्टि से गुरु, पिता है, और शिष्य पुत्र / 'पुत्ताय सीसाय समं भवित्ता।' अस्तु-ग्रन्थकार कहते हैं कि, ऐ साधुओ! यह तो तुम्हारे पिता का कथन है। इसे अवश्यमानो।तभी दुनियाँ में सपूत कहलाओगे नहीं तो देख लो कपूतपन का लांछन तुम को लगे बिना नहीं रहेगा। कपूत उभयलोक से भ्रष्ट होता है। पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [211