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________________ तत्तोवि से चइत्ताणं, लब्भइ एलमूअअं। नरगं तिरिक्ख जोणिं वा, बोही जत्थ सुदुल्लहा॥५०॥ ततोऽपि सः च्युत्वा, लत्स्यते एडमूकताम्। नरकं तिर्यग्योनिं वा, बोधिर्यत्र सुदुर्लभा॥५०॥ ___ पदार्थान्वयः-तत्तोवि-वहाँ से भी (देवलोक से भी) से-वह चइत्ताणं-च्युत होकर (गिर कर) एलमूअअं-मेष की भाषा के समान अस्पष्ट-मूक भाषा-भाषी मनुष्य जन्म को लभइप्राप्त करेगा वा-अथवा नरगं तिरिक्ख जोणिं-नरक, तिर्यंच-योनि को प्राप्त करेगा जत्थ-जहाँ पर बोही-जिन धर्म की प्राप्ति सुदुलहा-अति दुर्लभ है। मूलार्थ- वह चोर साधु देवलोक से च्युत होकर (गिर कर) मेष के समान मूकभाषा बोलने वाला मनुष्य होता है अथवा पराधीन-नरक-तिर्यंच योनि को प्राप्त करता है; जहाँ जिन-धर्म की प्राप्ति अतीव दुर्लभ है। ___टीका- इस गाथा में यह प्रतिपादन किया है कि, चौर्य-कर्म करने वाला वेष-धारी साधु, किल्विष-देव भाव को भोग कर यदि मनुष्य गति को भी प्राप्त होगा तो जैसा बकरा वाणी बोलता है, वैसी ही वाणी बोलने वाला गूंगा मनुष्य होगा। (बहुत से अर्थकार यह कहते हैं कि, वह बकरा ही बनेगा, यह भी ठीक है)। इतना ही नहीं, किन्तु संसार-चक्र में परिभ्रमण करता हुआ कभी वह नरक में जाएगा और कभी तिर्यंच (पशु-पक्षी की योनि) में जाएगा। ऐसे नीच पुरुषों को जल्दी से छुटकारा नहीं मिलता। तात्पर्य यह है कि, वह जहाँ जाएगा वहाँ अशांत (दुःख-पीड़ित) ही रहेगा। उसे शान्ति-प्रद जिन-धर्म की प्राप्ति होना अतीव दुर्लभ है, क्योंकि जिन धर्म की प्राप्ति आर्जव-भावों के आश्रित है, वक्र-भावों के नहीं। सूत्रकार ने यह स्तेन-भाव का वर्णन भलीभाँति कर दिया है और साथ ही उसके फल का भी दिग्दर्शन किया है। जिसका स्पष्ट भाव है कि, उक्त मायाचार की क्रियाओं के करने से संसार की वृद्धि हो जाती है। अतः प्रत्येक मुनि का कर्तव्य है कि, वह ऐसे मलिन कार्यों से अपनी शुद्ध-आत्मा को सदा बचा कर रक्खे। उत्थानिका- अब सूत्रकार, प्रकृत-विषय का उपसंहार करते हैं:एअं च दोसंदट्ठणं, नायपुत्तेण भासियं। अणुमायपि मेहावी, माया मोसं विवज्जए॥५१॥ एतं च दोषं दृष्ट्वा, ज्ञातपुत्रेण भाषितम्। अणुमात्रमपि मेधावी, माया-मृषां विवर्जयेत्॥५१॥ पदार्थान्वयः- मेहावी-मर्यादावर्ती-साधु नायपुत्तेण-ज्ञात पुत्र से भासियं-कहे गए एअं च-इस पूर्वोक्त दोसं-दोष को दट्ठणं-देख कर अणुमायंपि-स्तोक मात्र भी माया मोसं-छल पूर्वक असत्य बोलने का विवज्जए-परित्याग करे। 210] दशवैकालिकसूत्रम् - [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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