________________ करते हैं !' तब उस मुनि ने जो कुछ उसका भाव था वह बतला दिया। फिर वह पृच्छक-मुनि, अहं-मन्यता' से कहे कि, 'हाँ, मेरे हृदय में भी इसका यही अर्थ बैठा हुआ है, यह तो मैं आपकी परीक्षा ले रहा था' तो वह पृच्छक साधु भाव चोर होता है। तात्पर्य यह है कि, अपनी पूजा-प्रतिष्ठा के लिए किसी अन्य का नाम छिपा कर असत्य वचन बोलना तथा मौनावलंबन कर लेना तथा वाक-छल से उत्तर देना. ये सब चोरी के अवान्तर भेद हैं / इसलिए इस प्रकार की क्रियाओं के करने वाले साधु , किल्विष-देवों के कर्मों की उपार्जना करते हैं अर्थात् वे मर कर नीच किल्विष देवों में उत्पन्न होते हैं। उत्थानिका- अब 'वे किल्विषदेव कैसे होते हैं ?' इस विषय में कहा जाता है:लद्धण वि देवत्तं, उववन्नो देवकिव्विसे। तत्थावि से न याणाइ, किं मे किच्चा इमं फलं // 49 // लब्ध्वाऽपि देवत्वं, उपपन्नो देवकिल्विषे। तत्राऽपि सः न जानाति, किं मे कृत्वा इदं फलम्॥४९॥ पदार्थान्वयः-देवकिव्विसे-किल्विषदेव जाति में उववन्नो-उत्पन्न हुआ देवत्तंदेवत्व को लद्धणवि-प्राप्त करके से-वह तत्थावि-वहाँ भी निश्चय से नयाणाइ-नहीं जानता कि मे-मैंने किं किच्चा-कौन सी क्रिया करके इमंफलं-यह किल्विष देवत्व का फल प्राप्त किया। . मूलार्थ-वह पूर्व सूत्रोक्त चोर-साधु , किल्विषदेव जाति के देव रूप में उत्पन्न होकर भी यह नहीं जानता कि, मैं किस कर्म के फल से इस नीच किल्विष देव जाति में उत्पन्न हुआ हूँ। टीका-यदि वह चोरी करने वाला व्यक्ति तथा-विध क्रिया के पालन से किल्विष देवों में उत्पन्न भी हो गया तो भी वह यह नहीं जानता कि, मैं कौन-सी दुष्क्रिया के फल में नीच किल्विष-देव बना हूँ, क्योंकि देव-विशिष्ट-अवधि-ज्ञान के बल से अपने पूर्व भव (जन्म) की ठीक स्मृति कर लेता है, किन्तु वह विशिष्ट अवधि ज्ञान के न होने से अपने पूर्व-जन्म के वृत्तान्त को नहीं जान सकता। पूर्वोक्त छल-क्रियाओं के करने से उसे विशिष्ट-अवधि ज्ञान नहीं होता तथा मन्द-क्रियाओं के करने से ही उक्त देव नीच भाव प्राप्त कराता है तथा मोक्षपद प्राप्त करता है। किन्तु मन्द-क्रियाओं का फल मन्द गति ही प्राप्त होना है। इसी लिए सूत्रकार ने स्वयं नीच-गति का वर्णन किया है। .. सूत्रकार ने जो पूर्व जन्मकृत-कर्मों के ज्ञान का निषेध किया है। उसका यह आशय है कि, पूर्व-कृत-कर्मों का संस्मरण होने से जीवात्मा को पश्चात्ताप द्वारा कुछ संभलने का (सद्गति का) अवसर मिल जाता है। परन्तु उस पापी चोर साधु को तो यह अवसर भी नहीं मिलता। चौर्य-कर्म प्रेमी प्राणी का अधः पतन निःसीम होता है। . उत्थानिका- अब सूत्रकार, 'उस किल्विषदेव दशा से भी च्युत होकर वह कहाँ जाता है ?' इस विषय में कहते हैं पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 209