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________________ पदार्थान्वयः-जे-जो नरे-मनुष्य तवतेणे-तप का चोर वयतेणे-वचन का चोर यतथा रूवतेणे-रूप का चोर य-तथा आयारभावतेणे-आचार और भाव का चोर होता है. वह देवकिव्विसं-किल्विषदेवत्व की कुव्वइ-प्राप्ति करता है अर्थात् वह अत्यन्त नीच जो किल्विषदेव हैं, उन में पैदा होता है। मूलार्थ-जो साधु, तप का चोर, वचन का चोर, रूप का चोर, आचार का चोर तथा भाव का चोर होता है, वह अगले जन्म में अत्यन्त नीच योनि-किल्विषदेवों में उत्पन्न होता है। . टीका-संसार में चौर्य-कर्म का त्याग बड़ा ही कठिन है। मनुष्य, सावधानी रखता हुआ भी किसी न किसी प्रकार के भावावेश में आकर चोरी कर ही बैठता है, क्योंकि चोरी कोई एक तरह की नहीं होती, चोरी के भेद-प्रभेद बहुत अधिक संख्या में हैं / जिन्होंने जैनागमों का पूर्ण अभ्यास किया है, वे ही इस के भेद-प्रभेदों को जानते हैं और वे ही इस पाप-पङ्क से साफसाफ बचते हैं। अब सूत्रकार, यहाँ प्रसंगोचित फल वर्णन के साथ यह कहते हैं 'कि, साधु वेष में किस-किस प्रकार की चोरियों की संभावना है, जिनसे साधु हमेशा बचता रहे। तपश्चोर-कोई साधु स्वभावतः दुबला-पतला और निर्बल शरीर वाला है, किसी भावुक-गृहस्थ ने उसको देख कर पूछा कि, 'हे भगवन् ! क्या मास-क्षमण आदि महान् तपस्या के करने वाले आप ही तपोमूर्ति आगार हैं ? तब साधु अपनी पूजा की इच्छा से यदि यह कहे कि, 'हाँ, वह तपस्वी मैं ही हूँ , तो वह साधु तप का चोर है, क्योंकि वह कभी 'मास' आदि तप तो करता नहीं, किन्तु असत्य भाषा बोल कर झूठा तपस्वी बनना चाहता है या ऐसा कहे कि, हाँ, भाई ! साधु लोग तप किया ही करते हैं। साधुओं के तप का क्या पूछना ? तथा मौन-भाव ही अवलंबन कर ले, जिससे गृहस्थ जान जाए कि, यही महामुनि वे घोर तपस्वी है अपने मुख से अपनी प्रशंसा करना नहीं चाहते।'हीरा मख से ना कहे मेरा इतना मोल'। इसी प्रकार अगले प्रश्रों के विषय में भी विशेष रूप से जान लेना चाहिए। वचःस्तेन- कोई साधु व्याख्यान देने में बड़ा ही निपुण है। उस की समाज में बड़ी प्रशंसा है। परन्तु कभी दूसरा व्याख्यानी साधु किसी अपरिचित स्थान में गया और लोग उसी प्रसिद्ध व्याख्यानी साधु के भ्रम से उससे पूछे कि, 'क्या अमुक शास्त्रविशारद-व्याख्यान-वाचस्पति साधु आप ही हैं।' तब मुनि यदि उत्तर में यह कहे कि, हाँ, वह मैं ही हूँ अथवा साधु-व्याख्यानी हुआ ही करते हैं या मौन धारण कर जाए, तो वह साधु वचन का चोर है, रूप-चोर- कोई रूपवान् राज कुमार दीक्षित हो गया। तब उसके रूप के समान किसी अन्य साधु से कोई पूछे कि, क्या आप ही राज कुमार हैं, जो बड़े रूपवान् हैं और अभी दीक्षित हुए हैं।' तब साधु उत्तर में स्पष्ट कहे या वाक् छल से 'हाँ, साधु राज्य वैभव को छोड़ कर ही साधुत्व लेते हैं। वैराग्य-धन के सामने यह धन क्या वस्तु है ?' यह कहे अथवा मौन रह जाए, तो वह साधु रूप का चोर माना जाता है। आचार-चोर- कोई साधु व्यवहार मात्र से बाह्य-आचार -विचार में बड़ा ही तत्पर रहता है। तब कोई प्रश्र करे कि, 'हे भगवन् ! क्या अमुक आचार्य के क्रिया-पात्र-शिष्य आप ही हैं ?' तब साधु उत्तर में कहे कि, साधु स्वीकृतक्रियाओं का पालन करते ही हैं या स्पष्ट 'हाँ' भर ले तथा मौनावलंवन से कुछ ऐसा ही व्यक्त करे तो वह साधु आचार का चोर होता है। भाव-चोर-किसी साधु के हृदय में किसी शास्त्र का गूढार्थ नहीं बैठता है। अतः उसने किसी अन्य साधु से पूछा कि, 'इस पद का क्या अर्थ 208] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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