________________ आयरिए आराहेइ, समणे आवि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंति, जेण जाणंति तारिसं॥४७॥ आचार्यानाराधयति , श्रमणांश्चापि तादृशः। गृहस्था अप्येनं पूजयन्ति, येन जानन्ति तादृशम्॥४७॥ ___पदार्थान्वयः-तारिसो-ऐसा गुणवान् साधु आयरिए-आचार्यों की आराहेइ-शुद्धभाव से कल्याणकारी आराधना करता है, इसी प्रकार समणे आवि-सामान्य साधुओं की भी आराधना करता है तथा गिहत्थावि-गृहस्थ लोग भी णं-इस पवित्र साधु की पूयंति-पूजा करते हैं जेण-जिस करण से (क्योंकि) गृहस्थ लोग तारिसं-तादृश-शद्ध धर्मी को जाणंति-जानते हैं। मूलार्थ- गुणवान् साधु , आचार्यों की एवं अन्य सामान्य-साधुओं की भी सम्यक्तया आराधना कर लेता है, ऐसे गुणी साधु की गृहस्थ लोग भी भक्ति-भाव से पूजा (सेवा) करते हैं, क्योंकि गृहस्थ लोग उस शुद्ध संयमधारी को भली-भाँति जानते हैं। टीका-गुणवान् साधु, आज्ञा-पालन द्वारा जैसे अपने धर्माचार्यों की आराधना करता है, ठीक उसी प्रकार विनय-भक्ति, सेवा-शुश्रूषा द्वारा अन्य सहचारी साधुओं की भी सम्यक्तया आराधना करता है। उस में इतनी अधिक नम्रता का गुण होता है कि जिससे वह भूल कर भी कभी यह नहीं विचार करता कि, 'ये साधु मेरे से अधिक क्या गुण रखते हैं, मैं इनकी क्यों सेवा करूँ !' बल्कि वह सदैव यही विचार करता है कि, इस नश्वर शरीर से जितनी भी सेवा की जाए उतनी ही थोड़ी है, शरीर अमर नहीं बल्कि सेवा अमर है। ऐसे गुणवान् साधु की गृहस्थ लोग भी पूजा-वन्दना (नमस्कार) करते हैं और सभक्ति-भाव वस्त्र, पात्रादि मुनि-योग्य वस्तु की निमंत्रणा भी करते हैं। कारण यह है कि वे मुनि को जिस प्रकार से गुणवान् देखते हैं, उसी प्रकार से पूजा (सत्कार) भी करते हैं। - इस गाथा से यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि, वस्तुतः गुणों का ही पूजन है किसी वेष का, नाम का तथा सम्बन्ध का नहीं। 'गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्ग न च वयः।' इस लिए समस्त मुनियों को चाहिए कि, वे अपनी मुनि-वृत्ति में यदि कभी किसी प्रकार की न्यूनता देखें तो झट-पट उस न्यूनता को दूर कर स्व-वृत्ति की पूर्ति करें। अन्यथा गृहस्थों से तिरस्कृत (भर्त्सित) होना पड़ेगा। एक पूज्य अपना कर्तव्य पालन न करने के कारण अपने पुजारी से झिड़का जाए, यह कितनी लज्जा की बात है? उत्थानिका- अब सूत्रकार, कुछ अन्य चोर साधुओं के विषय में कहते हैंतवतेणे वयतेणे, रूवतेणे य जे नरे। आयारभावतेणे य, कुव्वइ देवकिव्विसं // 48 // तपःस्तेनः वचःस्तेनः, रूपस्तेनस्तु यो नरः। आचार-भावस्तेनश्च , करोति देवकिल्विषम्॥४८॥ पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 207