________________ टीका-गुरु कहते हैं कि, हे शिष्यो! तुम उस साधु के गुण-संपदा रूप संयम को देखो जो अनेक साधुओं द्वारा पूजित (आसेवित) है और जो मोक्ष का अवगाहन करने वाला है, अतः विपुल है तथा जो असार-पौगलिक सुखों का साधक न होकर, परम-सार-निरूपममोक्ष-सुख का साधक है। उस पवित्र मुनि के गुणों का मैं कीर्तन करूँगा, अतः तुम दत्त-चित्त होकर मुझ से श्रवण करो। गुण-सागर-मुनियों के गुणों के श्रवण से आत्मा में वह अद्भुतक्रान्ति होती है, जिस से पामर, नगण्य-मनुष्य भी एक दिन त्रिलोक-वंद्य हो जाते हैं / इस गाथा के देखने से यह निश्चय हो जाता है कि, जिस आत्मा ने मदिरा पान और प्रमाद का परित्याग कर दिया है, उस आत्मा में निश्चय ही अनेक उत्तमोत्तम, सुन्दर-गुण एकत्र हो जाते हैं। जिससे वह अनेक साधुओं से पूजित हो जाता है। इतना ही नहीं किन्तु दुष्प्राप्य मोक्ष का भी साधक बन जाता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार,सद्गुणी-साधु की संवराराधना की सफलता के विषय में कहते हैं एवं तु स गुणप्पेही, अगुणाणंच विवज्जए। तारिसो मरणंतेवि, आराहेइ संवरं॥४६॥ एवं तु स गुणप्रेक्षी, अगुणानां च विवर्जकः। तादृशो मरणान्तेऽपि, आराधयति संवरम्॥४६॥ ___ पदार्थान्वयः- एवं तु-उक्त प्रकार से स-वह गुणप्पेही-गुणों को देखने वाला चतथा अगुणाणं-अवगुणों को विवज्जए-छोड़ने वाला तारिसो-तादृश-शुद्धाचारी साधु मरणंतेविमृत्यु के समय पर भी निश्चय ही संवरं -चारित्र धर्म की आराहेइ-आराधना कर लेता है। __ मूलार्थ-उक्त प्रकार से जो साधु, सद्गुणों को धारण करने वाला और दुर्गुणों को छोड़ने वाला है, वह अन्तिम (मृत्यु) समय में भी स्वीकृत चारित्र की सम्यक् आराधना करता है। टीका- जो साधु सद्गुणों का धारक, दुर्गुणों का परिहारक एवं सदैव अन्त:करण की शुद्ध-वृत्ति का संरक्षण है, वह अन्य समय तो क्या, जो समय उद्विग्नता (विकलता) का होता है उस मृत्यु के समय में भी चारित्र धर्म की पूर्णतया समाराधना कर लेता है, क्योंकि सदैव शुद्ध-बुद्धि बनी रहने से हृदय में चारित्र धर्म का बीज इस प्रकार दृढ़ता से अंकुरित हो जाता है कि, जो आगे आगे और अधिकाधिक पल्लवित होता रहता है। उसे घोर से घोर मृत्यु जैसे संकट की प्रचंड आँधी भी नष्ट नहीं कर सकती। इसीलिए सूत्रकार ने सूत्र में 'तारिसो"तादृशः' पद पढ़ा है। जिससे उक्त गुणोपेत, शुद्ध संयम धारी मुनि, संवर चारित्र धर्म का पूर्ण आराधक हो जाता है। सूत्रगत 'गुण' शब्द से अप्रमाद, क्षमा, दया, सत्यता, सरलता, इन्द्रिय-निग्रहता आदि और अवगुण शब्द से प्रमाद, अविनय, क्रोध, असत्य, रस-लोलुपता, विलास-प्रियता आदि का ग्रहण है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, सद्गुणी साधु की पूजा-प्रतिष्ठा के विषय में प्रतिपादन करते हैं 206] दशवकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्