SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलार्थ-बुद्धिमान् साधु वही है, जो सदा तप क्रियाएँ करता है, कामोत्पादक स्निग्ध रस छोड़ता है और मद्य पान के प्रमाद से भी सर्वथा पराङ्मुख रहता है। वह तपस्वी श्रेष्ठ है तथा ऐसा वह तपस्वी साधु, घोर तपस्वी होकर भी कभी अपने तपस्वीपन का गर्व नहीं करता है। टीका-जो बुद्धि-युक्त या मर्यादावर्ती साधु है, वे तो सदैव 12 प्रकार के तप कर्म में संलग्न रहते हैं। यही नहीं, तप की पूर्ति के लिए स्निग्ध तक का भी परित्याग कर देते हैं। साथ ही मद्य-पान से सर्वथा अलग होकर (निवृत्त होकर परम तपस्वी भी हो जाते हैं।) तपस्वी भी साधारण नहीं, बल्कि जिनके हृदय में कभी यह गर्व नहीं होता है कि, 'मैं ही उत्कृष्ट तप करने वाला पवित्र भिक्षु हूँ।' यहाँ मदिरा शब्द उपलक्षण है, अतः यह निषेध सभी मादक-द्रव्यों के विषय में जानना चाहिए। मादक-द्रव्यों में मद्य का प्रधान पद है, इस लिए सूत्रकार प्रथम उत्कृष्ट नामी पदार्थों के विषय में ही कह दिया करते हैं। सर्वे पदा हस्तिपदे निमग्नाः।' स्थानाङ्ग सूत्र के छठे स्थान में भी छः प्रकार के प्रमादों में मद्य को ही प्रथम स्थान दिया है तथा सूत्रकार ने जो इसी सूत्र में 'मज्जप्पमायविरओ' पद दिया है, उस का भी यही भाव होता है कि, साधु, 'जितने भी मद उत्पन्न करने वाले पदार्थ हैं' सभी से विरक्त रहे / यदि यहाँ कोई ऐसा कहे कि, अन्न आदि के सेवन से भी तो कभी-कभी उन्मत्तता आ जाती है, तो क्या इससे अन्न आदि पदार्थ भी नहीं खाने चाहिए ? इसके उत्तर में कहना है कि, जिस प्रकार की उन्मत्तता मदिरा-पान आदि के आसेवन से होती है, उस प्रकार की अन्न आदि से कभी नहीं हो सकती। अन्नादि का सेवन सात्विक-गुण वाला है और मदिरा आदि का सेवन तमो गुण वाला है। फिर दोनों की समानता कैसी ? मदिरा आदि राक्षसी पदार्थ होने से त्याज्य हैं और अन्य आदि मानुषी पदार्थ होने से संयम रक्षार्थ ग्राह्य है। हाँ, अन्नादि का सेवन भी प्रमाण से अधिक नहीं करना चाहिए।' उत्थानिका- अब सूत्रकार, फिर इसी विषय में कथन करते हैंतस्स पस्सह कल्लाणं, अणेगसाहुपूइअं / विउलं अत्थ संजुत्तं, कित्तइस्सं सुणेह मे॥४५॥ तस्य पश्यत कल्याणं, अनेक - साधु- पूजितम्। विपुलम् अर्थसंयुक्तं, कीर्तयिष्ये शृणुत मम्॥४५॥ - पदार्थान्वयः- तस्स-उस साधु के अणेगसाहुपूअं-अनेक साधुओं से पूजित फिर विउलं -मोक्ष का अवगाहन करने से विपुल अत्थसंजुत्तं-मोक्ष के अर्थ से युक्त कल्लाणं-कल्याण रूप को पस्सह-देखो, मैं उसके गुणों का कित्तइस्सं-कीर्तन करूँगा उनको मे-मुझ से सुणेह-तुम श्रवण करो। . मूलार्थ-हे शिष्य ! तुम उस साधु के कल्याण रूप संयम को देखो जो अनेक साधुओं से पूजित है और मोक्ष का अवगाहन करने वाला है तथा मोक्ष के अर्थ का साधक है। उसके गुणों का मैं कीर्तन करूँगा, इसलिए तुम मुझ से सावधान हो कर सुनो। पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 205
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy