________________ उत्थानिका- अब सूत्रकार, उक्त विषय का उपसंहार करते हैंएवं तु अगुणप्पेही, गुणाणं च विवजए। तारिसो मरणंतेवि, ण आराहेइ संवरं॥४३॥ एवं तु अगुणप्रेक्षी, गुणानां च विवर्जकः। तादृश : मरणान्तेऽपि, नाराधयति संवरम्॥४३॥ - पदार्थान्वयः- एवं तु-उक्त प्रकार से अगुणप्पेही-अवगुणों को देखने वाला अर्थात् धारण करने वाला च-और गुणाणं-गुणों को विवजए-छोड़ने वाला तारिसो-यह वेष धारी साधु मरणंतेवि-मृत्य समय में भी संवरं-संवर का ण आराहेइ-आराधक नहीं होता। मूलार्थ-इस प्रकार अवगुणों को धारण करने वाला और सदगुणों को छोड़ने वाला मूढ़मति-साधु और तो क्या ? मृत्यु समय में भी संवर का आराधक नहीं हो सकता टीका-केवल वेष के परिधान से मुक्ति नहीं हो सकती, वेष के साथ गुण भी अतीव आवश्यक है। यदि वेष शरीर है, तो गुण जीवन है, बिना जीवन के शरीर मृत-तुल्य है। कुछ नहीं कर सकता है। अस्तु , जो केवल वेष मात्र से उदर-भरी भरने वाला है एवं क्षमा, दया, इन्द्रिय-निग्रहता आदि सद्गुणों को छोड़कर भोग विलास आदि अवगुणों को स्वीकर करने वाला, हिताहित ज्ञान-शून्य साधु है, वह अन्य समय में तो क्या, मृत्यु के समय में भी धर्म की आराधना नहीं कर सकता, जिस समय धर्म की आराधना करना सभी शास्त्रों के सम्मत एवं बहुत आवश्यक है अर्थात् उस मद्यपायी का अन्त समय नहीं सुधरता। __ जिस व्यक्ति की आत्मा, मादकीय-उन्मत्तता के कारण सदा संक्लिष्ट रही हो, उसे ऐसे अवसर पर किस प्रकार धार्मिक क्रियाओं के पालन का ध्यान आ सकता है ? अन्त समय प्रायः उसी का सुधरता है, जिसका पहला समय भी सुधरा रहता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, मद्य पान के त्याग का माहात्म्य वर्णन करते हैंतवं कुव्वइ मेहावी, पणीअं वज्जए रसं। मज्जप्पमायविरओ, तवस्सी अइ उक्कसो॥४४॥ तपः करोति मेधावी, प्रणीतं वर्जयति रसम्। मद्यप्रमादविरतः , तपस्वी अत्युत्कर्षः॥४४॥ __ पदार्थान्वयः-मेहावी-बुद्धिमान्, मर्यादावर्ती साधु तवं-उज्ज्वल तप कुव्वइ-करता है तथा आहार में पणीअं-स्निग्ध रसं-रस वजए-छोड़ता है। इतना ही नहीं किन्तु मञ्जप्पमायविरओ-मद्य-पान के प्रमाद से रहित तपस्सी-तपस्वी है। तपस्वी भी कैसा, अइ उक्कसो-सर्वश्रेष्ठ, किन्तु 'मैं तपस्वी हूँ' इस उत्कर्ष (अहंकार) से रहित-अर्थात् जो तपस्वीपने का किसी प्रकार भी अहंभाव नहीं रखता है। 204] दशवैकालिकसूत्रम् [पञ्चमाध्ययनम्