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________________ द्वारा घोर कष्टों का सामना करता रहता है। इतना ही नहीं, किन्तु उसकी आत्मा, दुर्गति से इतनी घनी (अधिक) मलिन हो जाती है, कि जिससे यह मृत्यु का समय समीप आ जाने पर भी संवर-चारित्र मार्ग की समाराधना नहीं कर सकता। जिनका हृदय सदा दुष्कर्म पङ्क से मलिन रहता है, उनके हृदय में संवर बीज का सद्भाव भला कैसे हो सकता है ? सूत्रकार ने जो चोर का दृष्टान्त दिया है, उसका कारण है कि, चोर दिन-रात सदा उद्विग्न, भयभीत, दुःखित और प्रकंपित रहता है; ठीक उसी प्रकार मदिरा पान करने वाला साधु भी भयभीत और उद्विग्न रहता है। वस्तुतः चोर के उदारहण से मद्यप साधु का छिपा हुआ चित्र स्पष्टतः व्यक्त हो जाता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, 'मदिरापायी साधु की गृहस्थ लोग भी निन्दा करते हैं' इस विषय में कहते हैं आयरिए नाराहेइ, समणे आवि तारिसो। गिहत्था विणं गरिहंति, जेण जाणंति तारिसं॥४२॥ आचार्यान्नाराधयति , श्रमणांश्चापि तादृशान्। गृहस्था अप्येनं गर्हन्ते, येन जानन्ति तादृशम्॥४२॥ पदार्थान्वयः-तारिसो-मदिरा पायी साधु आयरिए-आचार्यों की नाराहेइ-आराधना नहीं करता समणे आवि-साधुओं की भी अराधना नहीं करता। इतना ही नहीं बल्कि गिहत्था विगृहस्थ भी णं-इस साधु की गरिहंति-निन्दा करते हैं जेण-क्योंकि वे तारिसं-उस दुष्ट-चारित्र वाले को जाणंति-जानते हैं। मूलार्थ-विचारमूढ़ मद्यप साधु से, न तो आचार्यों की आराधना हो सकती है और न साधुओं की। ऐसे साधु की तो जो साधुओं के पूरे प्रेमी भक्त होते हैं वे' गृहस्थ भी निन्दा ही करते हैं, क्योंकि वे उस दुष्कर्मी को अच्छी तरह जानते हैं। टीका- इस गाथा में उक्त दुराचारी का ऐहलौकिक फल वर्णन किया गया है, जैसे कि, वह मदिरा पान करने वाला साधु , अपने शासक-आचाओं की आराधना नहीं कर सकता है। आचार्यों की ही नहीं प्रत्युत, सहचारी साधुओं की भी आराधना नहीं कर सकता है। सदा ही उसके अशुभ-भाव बने रहते हैं तथा उस दुराचारी मुनि की गृहस्थ लोग भी निन्दा करते हैं कि, 'देखो, यह साधु कैसा नीच है ? सिंह के वेष में गीदड़ का काम करता है।' वस्तुतः वे लोग सच्ची बात कहते हैं, जो जैसा देखता है वैसा ही कहता है। साधु तो समझता है कि मुझे कौन जानता है ? परन्तु गृहस्थ लोग उसकी सब गुप्त बातों को जानते हैं। क्योंकि, चाहे कितना ही छिपा कर काम करो, पाप छिपा हुआ नहीं रह सकता। उसका भांडा फूट कर ही रहता है। आशय यह है कि, दुराचारी-साधु न तो धर्म की आराधना कर सकता है और न धार्मिक महापुरुषों की। दुराचारता के कारण उसके मस्तक पर ऐसा कलंक का काला टीका लग जाता है जिससे वह जिस तरफ निकलता है, उसी तरफ उस पर लोगों की तिरस्कार सूचक उँगलियाँ उठती चली जाती हैं। निन्दित-मनुष्य का कुछ जीवन में जीवन है ? ऐसे जीवन से तो मृत्यु ही अच्छी है। पञ्चमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 203
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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